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ज्ञानावरणादि आठ वर्म रूपी दो शत्रु (द्रव्य-भाव) अष्टगुण युक्त इस आत्माके गुणोंको आवृत कर कष्ट दे रहे हैं।
राग-द्वेष, मोह, ये तो भाबकर्ग हैं, अष्टकम द्रश्यकम है। चर्मका यह शरीर नोकर्म है। इस प्रकार ये तीन कर्मकाण्ड हैं।
भावकों के द्वारा यह आत्मा द्रव्यकर्मोंको बांध लेता है। और उन द्रव्यकर्मोंके द्वारा नोकर्मको धारण कर लेता है | उससे जन्म , मरण, गोम शोकादिकको पाकर यह आत्मा कष्ट उठाता है।
बहुरूपिया जिस प्रकार अनेक वेषोंको धारण कर लोकमें बहुरूपोंका प्रदर्शन करता है, उसी प्रकार यह आत्मा लोकमें बहुतसे प्रकारके शरीरोंका धारण कर भ्रमण करता है। ___एक शरीरको छोड़ता है तो दूसरे शरीरको धारण करता है । उसे भो छोड़ता है तो तीसरेको ग्रहण करता है, इस प्रकार शरीरको ग्रहण व स्याग कर इस संसार नाटकशालामें भिन्न-भिन्न रूपमें देखने में आता है । यह आत्मा कभी राजा होता है तो कभी रक होता है कभी स्वामी होता है तो कभी सेवक च नता है। भिक्षुक और कभी वनिक बनता है। कभी पुरुष के रूपमें तो कभी स्पीके रूपमें देखने में आता है। यह प्रमचरित है । विशेष क्या ? इस संसार में यह आत्मा नर, सुर, खग, मृग, वक्ष, नारक आदि अनेक योनियोंमें भ्रमण करते हए परमात्मकलाको न जानकर दुःख उठाता है।
पंचेन्द्रियोंके सुखके आधीन होकर वह आत्मा अपने स्वरूपको भूल जाता है.। शरीरको ही आत्मा समझने लगता है। जो शरीरको ही आत्मा समझता है उसे बहिरात्मा कहते हैं। आत्मा अलग है और शरीर अलग है, इस प्रकारका ज्ञान जिसे है उसे अन्तरात्मा कहते हैं। तीनों ही शरीरों का सम्बन्ध जिसको नहीं है यह परमात्मा है। वह सर्वश्रेष्ठ निर्मल परमात्मा है।
आत्मतत्वको जानते हुए आत्मा अन्तरात्मा रहता है। परन्तु उस आत्माका ध्यान जिस समय किया जाता है उस समय वही आत्मापरमात्मा है । यह परमात्मा जिनेन्द्र भगवतका दिव्य आदेश है।
जिस प्रकार सूर्य बादलके बीच में रहने पर भी स्वयं अत्यन्त उज्ज्वल रहता है, उसी प्रकार कर्मोके बीच में रहने पर भी यह बात्मा निर्मल है। इस प्रकार आत्माके स्वरूपको समाप्तकर नित्य उसका ध्यान करें तो कोका नाश होफर मुक्तिको प्राप्ति होती है।