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भरतेश वैभव सुपुत्र, सुशीलभार्या व इष्ट परिवार प्राप्त नहीं होते हैं। इसके लिए पूर्वोजित पुण्यको आवश्यकता पड़ती है । भरतेश्वर सदा इस भावनामें रत रहते हैं
"हे परमात्मन् ! आप चिन्तामणिके समान इपिछत फलको वेनेवाले हैं । अत एवं चिन्तारत्न हैं और रत्नाकर स्वामी हैं। मनोहर हैं और निश्चिन्त हैं । इसलिए मेरे इमों मला बने रहो !" इसी पवित्र भावनाका फल है वे हर तरहसे सुखी हैं।
इति साधना-संधिः
विधामोटि संधिः वनको शीतल छाया, शीतल पवन में थोड़ोसी निद्रा लेकर सभी कुमार जिनसिद्ध, गुरु निरंजन सिद्ध कहते हुये उठे। तदनन्तर मुंह धोकर गुलाबजल, कपूर इत्यादिको छिड़कनेके बाद सेवकों ने तांबूलके करंडको आगे किया। तांबूल सेवन कर शीतल पवनमें बैठे हुये संगीत कलाके प्रदर्शनके लिए वे सन्नद्ध हुये । योग्य कालको जानकर भिन्न-भिन्न रागोंके स्वरोको ध्यानमें लेकर गौड़ राग, श्रीराग, मालवराग इत्यादि रागसे आलाप करने लगे, उन्होंने अपने मस्तकपर जो पुष्प धारण किया है उसके सुगन्धके लिये, शरीरपर लगाये हुए श्रीगंधलेपनके लिये श्वासोछ्वास व मुखके सुगन्धके लिये वहां पर भ्रमरका समूह जो आ पड़ा उसने सुस्वरसे गायनमें श्रुति मिलाई।
सप्तस्वर, तीन ग्राम, चौसठ स्थानोंमें एकसौ आठ रागोंसे गायन करते हुये वे भरतशास्त्रमें भ्रमण करने लगे। भरत चक्रवर्ती के पुत्र यदि भरत शास्त्रमें प्रवीण न हों तो और कौन हो सकते हैं ? एक कुमारने मेघरंजी रागको लेकर आलाप किया तो निदाघ (गरमी) काल होनेपर भी आकाशमें मेघाच्छादन होकर पानी बरसने लगा। तब उसने उस रागके आलापको बंद कर दिया। एक कुमारने पत्थरके ऊपर बैठकर गुण्डाको नामके रागका आलाप किया तो वह पत्थर पिघलकर पानो हो गया तो फिर कोमल हृदयका पिघलना क्या आश्चर्य की बात है? एक कुमारके हिंदुवरालि नामके रागका आलाए किया वह जंगल एक ही क्षणमें पुष्प फल बगेरहसे भर गया । नागबरालो रागके गानेपर उनके सामने अपने फणोंको खोलकर अनेक सर्प आकर गायनको सुनने लगे।