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भरतेश वैभव
शीघ्र क्यों मुक्ति चले गये ? भगवंतने उत्तर दिया कि भव्य ! इस कालमें वही अल्पायुषी है, जाने दो ।
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भगवंत के चरणों में नमस्कार कर भरतेश्वर मंत्री मित्रोंके साथ समवशरणसे बाहर निकले। इसनेमें सामनेसे पराक्रमो जयकुमार आया व बहने लगा कि स्वामिन्! एक प्रार्थना है। भरतेश्वर ने कहा कि कहो क्या बात है ?
जयकुमार ने कहा कि स्वामिन्! देवगणोंने मुझपर घोर उपसगं किया। मैंने प्रतिज्ञा की कि यदि यह उपसर्ग दूर हुआ तो में दीक्षा ले लूंगा । सो उपसर्ग दूर हुआ। अब दोक्षाके लिए अनुमति दीजिये । यह कहकर भरतेश्वरके चरणोंमें उसने मस्तक रखा । भरतेश्वरने कहा कि उठो, जब व्रत हो तुमने किया तो अब तुम्हें कौन रोक सकता है ? विजय, जयंत तुम्हारे दो भाई हैं । उनको तुम्हारे पदपर नियुक्त करूँगा ।
जयकुमार ने कहा कि स्वामिन् ! उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो ?
भरतेश्वरने कहा कि यदि उन्होंने स्वोकार नहीं किया तो फिर जिनको भी नियुक्ति करोगे वही मेरा सेनापति होगा। जाओ, मैं इसे स्वीकार करता हूँ । जयकुमारने पुनः नम्रतासे कहा कि स्वामिन् ! बड़ा तो नहीं है ५-६ वर्षका पुत्र है । उसको आप रक्षा करें।
भरतेश्वरने कहा कि मेघेश ! चिंता मत करो । छोटा हुआ तो क्या हुआ ? वह बड़ा नहीं होगा ? जालो, तुमसे भी अधिक चिन्तास में उसका संरक्षण करूँगा ।
जयकुमारको सन्तोष हुआ। में भगवंसका दर्शन करके एक दफे नगरको जाऊँगा । पुनः इसी देवगिरिपर आकर मुनि दीक्षा से दीक्षित हो जाऊंगा, यह कहकर जयकुमार उधर गया व चक्रवर्ती इधर रवाना हुए
अयोध्या नगर में पहुँचकर मंत्री मित्रोंको अपने-अपने स्थानपर भेजा ! महल में रानियों में एक नवीन आनन्द हो आनन्द मच रहा है । जहाँ देखो वहाँ समवशरणकी ही चर्चा । एकान्त में जिनेन्द्रके दर्शनका अवसर, जिनेन्द्रका दिव्य आकार, विशिष्ट शान्ति, कमलको स्पर्श न करते हुए स्थित भगवंत विशेषता, आदि बातोंको स्मरण करती हुई वे देवियों आनन्दित हो रही हैं। गंगादेवी और सिधुदेवीको भी पूछा कि बहिन । पिताजीको आप लोगोंने देखा ! उत्तर में उन बहिनोंने कहा कि भाई !