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भरतेश वैभव
तुम्हारी कृपासे आज हम लोगोंने मुक्तिका ही दर्शन किया। और क्या होना चाहिए ? हम लोगोंका पुण्य प्रबल है । आपके बहिन बनानेके कारण हमारा भाग्य उदय हुआ ।
भरतेश्वर ने कहा कि बहिन ! एक गर्भसे कष्ट सहन कर आनेको क्या जरूरत है ? केबल स्नेहसे बहिन कहने से पर्याप्त नहीं है क्या ? उसके बाद अलग महल देकर उनको तीन महीने पर्यन्त वहीपर सुखसे रक्खा, पुनः और भी के लिए रहे थे। गंगादेव और देव कहने लगे कि हम जायेंगे फिर भरतेश्वरने उनका रत्न, वस्त्रादिकसे यथेष्ट सत्कार किया। उनकी आंखोंकी तृप्ति हो उस प्रकार उत्तमोत्तम रत्नोंसे उनका आदर किया। साथ में बहिनों को भो बस ! बस ! कहने तक रत्नादिक देकर उनकी विदाई की। वे अपने नगरकी ओर चले गये । इसी प्रकार पुत्रियोंको भी यथेष्ट सत्कार कर उनको रवाना किया। पोदनपुर के पुत्र व बहुओं को भी अनेक उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणोंसे सत्कार किया। उनकी भी विदाई की गई। बाकी के सहोदरोंके पुत्रोंको, बहुओंको योग्य बुद्धिवाद के साथ उत्तम उपहार देकर रवाना किया। दूरके सभी को रवाना कर स्वतः रानियोंको, पुत्रोंको व बहुओं को सुख पहुँचाते हुए अपना समय व्यतीत कर रहे थे ।
आगेके प्रकरणमें पुत्रोंके दीक्षापूर्वक एकदम मोक्षबोज अंकुरित होगा । पाठकगण उसकी प्रतीक्षा करें। यहाँ यह अध्याय पूर्ण होता है।
प्रजा आनन्दमय जीवनको व्यतीत कर रही है। परिवार सुखी हैं। राजागण आनन्दित हो रहे हैं । भग्लेश्वर अपने भोग व योग दोनों में मग्न है। यहां पर योगविजय नामक तीसरा कल्याण समाप्त होता है।
संसार में भोगका त्याग करने के लिए महर्षियों में आदेश दिया है । परन्तु भरतेश्वर उस विशाल भोग में मग्न हैं । अगणित सुखका अनुभव करते हैं। फिर भी योगविजयो कहलाते हैं, इसका क्या कारण है ? इसका एक मात्र कारण यही है कि योग हो या भोग, परन्तु किसी भी अवस्था में भरतेश्वर अपने को भूलते नहीं हैं । विवेकका परित्याग नहीं करते हैं। उनकी सतत भावना रहती हैं कि
“हे परमात्मन् ! योग हो या भोग उन दोनोंमें यदि तुम्हारा संयोग हो तो भुक्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । हे गुरुनाथ ! आप महाभोगी हो, मेरे हृदयमें सदर बने रहो ।