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भरतेश वैभव तरहके भोजनको परोसकर उन स्त्रियोंने चक्रवर्ती भरतकी आरती उतारी और नमस्कार कर एक तरफ खड़ी हो गई।
भरत भी इन स्त्रियोंकी नवीन भक्तिको देखकर जरा हँसे ।
उस समय भरत भोजनके लिये शुद्धिपूर्वक विराजमान थे। उस समय तिलक, यज्ञोपवीत, सुवर्णके काटीसूत्र, उत्तरीय व अंतरीय वस्त्रके सिवाय अन्य कोई राजकीय विभति उनके शरीरमें नहीं थी 1 वे हस्तप्रक्षालन आदि विधिसे निवृत्त होकर प्रशस्त पल्यंकासनमें बैठ गये अर्थात् दाहिने गुल्फको बायें गृल्फके ऊपर रखा और उसके ऊपर बायें हाथार दाहिना हाथ रखगर वे गये।
तदनंतर शांतभावसे आँख मींचकर अपने उपयोगको लोकाग्र भागमें पहुँचाकर उन्होंने श्री सिद्ध-परमेष्ठीका स्मरण किया तथा उनको अपने अंतरंगमें लाकर स्थापित किया, उनकी मानवन्दना की, और उन्हें यथास्थान विराजमान कर अपने नेत्र खोले । वे आँखोंसे अन्नजलको अच्छी तरह देख रहे हैं और ज्ञानचक्षुसे अपनी आत्माका दर्शन कर रहे हैं।
इसके बाद सोनेके कलशसे पानी लेकर मंत्रजप करते हुए उन्होंने थोड़ासा जलपान किया अर्थात् भोजन करनेको प्रारम्भ किया । इतनेमें घंटा बजने लगा।
भरतेश्वर दिव्यामृतके समान दिव्य अन्नपानका अब भोजन करने लगे हैं । भरतेश्वर ज्ञानान्नको आत्माके लिए और अन्न पानको शरीरके लिये एक कालमें अर्पण कर रहे हैं। ज्ञानियोंके सिवाय भरतेशके हृदयकी बातको और कौन जान सकते हैं ? भरत भक्ष्यके मुखका अनुभव शरीर को करा रहे हैं और आत्मा को मोक्ष के सुख का अनुभव करा रहे हैं। मोक्षगामियोंके सिवाय उस दक्षकी हृदयपरीक्षा कौन कर सकता है ? उस मधुर अन्नको सम्राट् अपने शरीरको खिला रहे हैं । स्त्रिलाते हुए वे शरीरसे, कह रहे हैं कि 'देखो ! तुमको मोटे ताजे बनानेके लिए मैं यह नहीं खिला रहा हूँ, तुम मेरे आत्माकी अच्छी तरह सेवा करना" सचमुचमें भरतके हृदयका विचार आसन्नभव्य ही जान सकते हैं। वे जिस समय तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल व मधूर इन पाँच रसोंका अनुभव जीभको करा रहे हैं, उसी समय आत्माको दर्शन, ज्ञान, वीर्य व सुखका भी अनुभव करा रहे हैं ।
शरीरको तन्दुलान्न खिला रहे हैं तो आत्माको बोधपिंड दे रहे हैं ।