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________________ भरतेम वेग ८३ जिनवास-निर्मित-संधिः कैलास पर्वतपर सम्राट्की आज्ञानुसार ७२ जिनमन्दिरों का निर्माण हुआ । भद्रमुखने अपने काग्रंकी पूर्ति कर सम्राट्की सेवामें प्रार्थना को कि स्वामिन् ! आपकी इच्छानुसार तमाम काम हो चुका है। भरत जो को भी बड़ी प्रसन्नता हुई । मंगलकार्य सुखरूपसे पूर्ण हुआ, यह सुनकर किसे हर्ष नहीं होगा? _भरतेश्वरने भद्रमुखको हर्षपूर्वक बुलाकर उसका अनेक प्रकारके रत्नवस्त्राभूषणोंसे मत्कार किया । उपस्थित राजा भी प्रसन्न हुए । इसी प्रकार युवराजने भी अनेक उत्तम पदार्थ उसे उपहारमें दिये। इसी प्रकार यवराजके सभी सहोदर व उपस्थित सभी राजाओंने उस सुरशिल्पीका सत्कार किया। अहंतके मन्दिरकी पूर्तिके समाचारको सुनकर जो दान नहीं देता है वह जिनभक्त जैन कैसे हो सकता है ? जिनके हृदय में ऐसे अवसरों में हर्ष नहीं होता है वह जैन कैसे कहला सकता है ? उस मुशिल्पको पहिले ही सम्पत्तिको कोई कमी नहीं है, फिर भी उन्होंने अपनी जिनभक्तिके द्योतनसे जो उपचार किया उससे भी वह प्रसन्न होकर चला गया। अब भरतेश्वर पंचकल्याणिक पूजाको तयारीमें लग गये। योग्य महूर्तको देखकर पूजा प्रारम्भ करानेका निश्चय किया गया और अपने मन्त्रो मित्रोंके साथ युवराजको भेजा और यह कहा कि आप लोग जाकर सर्व विधि विधानको प्रारम्भ कराएँ । में मुखवस्त्रका जिस दिन उद्घाटन कराना हो, उस दिन आता हूँ। इस प्रकार पूजा प्रारम्भ होनेके बाद भरतेश्वर महलमें इस बातको प्रतीक्षामें थे कि कन्यायें व बहिनें अभी तक क्यों नहीं आ रही हैं ? इतनेमें बहुत वैभवके साथ भरतेश्वरकी पुत्रियां अपने अपने पतिके साथ वहाँपर आकर दाखिल हुई। __ कनकाबली, रत्नावली, मुक्तावली, मनुदेवी आदि सभी कन्यायें आई व पिताके चरणोंमें नतमस्तक हुई। माताओंके साथ युक्त होकर जब वे पुत्रियां भरतेश्वरके चरणोंमें नमस्कार करने लगीं, तब उन्होंने अनेक रूपोंको धारण पुत्रियोंको आलिंगन दिया । अपनी गोदपर बैठाकर उनके कुशल वृत्तको पूछ रहे थे व कह रहे थे कि बेटी | तुम लोग आ गई सो बहुत अच्छा हुआ | इतनेमें उन पुत्रियोंकी दासियों आकर उनके पतिगृहके
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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