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________________ भरतेश वैभव सब लोगोंके जानेके बाद सम्राट् अपने महल में सुखसे अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। पाठक ! भरतेश्वरके जीवन के वेचिश्यको देखते होंमे ! कभी चिन्ता व कभी आनन्द, इस प्रकार विविध प्रसंग उनके जीवनमें देखने में आते हैं। उन्होंने ब्राह्मणोंका निर्माण किया तो उससे भविष्य में होनेवालो 'दुर्दशाको सुनकर वे कुछ खिन्न हुये थे। तदनन्तर सोलह स्वप्नोंके फलको सुनकर थोड़ा दुःख हुआ। परन्तु उसमें भी उन्होंने अपने हृदयको शान्त कर लिया ! भगवन्तके दर्शन मिलने के बाद दुःस्वप्न भी सुस्वप्न हो जाते हैं। भरतेश्वरको दुःस्वप्न दर्शन हआ, सो लोकके समस्त राजा अनेक शान्तिक, शारजना, होग-हननादि करते हैं। भरतेवर अमको भी उदासीन भावसे ही देखते हैं। उनकी धारणा है कि यह दुनिया हो स्वप्नमय है। मैंने सोते हुए सोलह स्वप्न देखे परन्तु जागता हुआ मनुष्य रोजमर्रा हजारों स्वप्नोंको देखता है, उन सबको सत्य समझता है, इसलिए संसारमें परिभ्रमण करता है। यदि उनको स्वप्न हो समझें तो दीर्घसंसारी कभी नहीं बन सकता है। इसलिए भरतेश्वर सदा इस प्रकारको भावना करते हैं कि हे परमात्मन् ! प्रतिनित्य समय समयपर प्राप्त होनेवाले सुख-दुःख, मित्र-शत्रु, धन व दारिद्रय यह सब स्वप्न ही है इस भावनाको जागृत कर मेरे हृदयमें सदा बने रहो । हे चिदम्बरपुरुष ! तुम इसी भावनासे सुखासीन हुए हो। हे सिद्धात्मन् ! आप स्वच्छ चाँदनीको मूतिके समान उज्ज्वल हो । सच्चिदानन्द हो । भव्योंके आराध्य देव हो । इसलिए मुझे सन्मति प्रदान कीजिये । इसी भावनाका फल है कि भरतेश्वरको ऐसे समय में कोई भी दुःख या सुखसे जन्य क्षोभ उत्पन्न नहीं होता है। इति षोडश-स्वप्न-संधिः
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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