________________
भरतेश वेव प्रकारसे अशांति होता है। आखिरको जिनधर्मका ह्रास होता है, परन्तु इन ब्राह्मणोंके धर्मका नाश नहीं होता है।
भरतेश्वरको आगे होनेवाले इस दुरुपयोगको सुनकर थोड़ासा दुःख जरूर हुआ । वे कहने लगे कि स्वामिन् ! इनकी सृष्टि तो आपसे ही हुई है। फिर इतना भी ये नहीं सोचेंगे? उत्तरमें भगवान्ने कहा कि भरत ! मागे सबको इतना विवेक कहाँसे आता है । अब तो दिन पर दिन बुद्धि, बल, विवेक, विवार शक्तिमें ह्रास ही होता जाता है, वृद्धि नहीं हो सकती है।
भरतेश्वरने पुनः कहा कि स्वामिन् नाटक शाला. दूसरा-उत्सव मंडप आदियों के उद्घाटन करने पर मुझे लोग मनु कहें यह उचित है केवल एक वर्णका नामाभिधान करनेसे मुझे ब्रह्मा क्यों कहते हैं यह समझ में नहीं आता । स्वामिन् ! आपके रहते हुए यदि में कोई नवोन वर्णकी सृष्टि करूं तो मुझ सरीले उइंड और कौन हो सकते हैं। फिर वे लोग ऐसा क्यों सोचते हैं. समझ में नहीं आता। तब भगवंतने कहा कि वे न्यायको सोमा को नहीं जानते हैं।
पुनः सम्राट्ने कहा कि स्वामिन् ! यदि द्विजोंको उत्पत्ति अन्तमें हुई तो आप हम जिस वंशमें उत्पन्न हैं, उस क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न लोगों को षोडश संस्कारोंका विधान किसने कराया ! इतना भी वे नहीं विचार करते हैं ? हाय ! बड़े मुर्ख हैं ! जातकर्म, नामकर्म, यज्ञोपवीत संस्कार आदि यदि इन ब्राह्मणोंने नहीं कराया हो तो वे जातिक्षत्रिय व वेश्य कसे बन गये ? इनका भो वे विचार नहीं करते हैं । उसी समय स्वयं एक एक के घरमें पहुँचकर इन संस्कारोंको हम विधान पूर्वक कराते थे । जब यह गुण पहिलेसे उनमें विद्यमान है तो फिर मैं क्यों उनका निर्माण करूं। वे तो पहिले से मौजूद थे। केवल मेरे नामाभिधान करनेसे लोकमें यह अनर्थ ! आश्चर्य है। ___ अपनी अंगुलीको दर्भवेष्टन कर, होम करनेके बाद दक्षिणा लेनेवाले ये ब्राह्मण क्या तलवार लेकर क्षत्रिय हो सकते हैं ? व्यापार करके वैश्य तो दाता है, पात्र नहीं है । परन्तु ये ब्राह्मण तो दाता भी हैं. पात्र भी हैं। इतना भी विचार उन लोगोंमें नहीं रहता है ? आश्चर्य है।
भगवन् ! विशेष क्या ? मुझे व मेरे छोटे भाइयोंका पवित्र यज्ञोपवीत संस्कारको किसने कराया ? ब्राह्मणोंने हैं न? फिर ये अपनेको अत्यंज (आखिरको उत्पन्न ) क्यों समझते हैं ? बड़े दुःखकी बात है ।