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भरतेश वैभव कहा कि स्वामिन् ! आज आपसे हम कृत्यकृत्य हुए । आपने हमारो आज सृष्टि की । उस दिन आदि भगवंतने जो सृष्टि की है वह तीन वर्णके नामसे ही रहे । हम लोग आपको ही सृष्टि कहलाना चाहते हैं । हम तो आपके ही सृष्टि हैं । तब सम्राट्ने कहा कि नहीं ! ऐसा नहीं होना चाहिए । सष्टि तो आदि प्रभुको ही रहे । केवल नामाभिधान मेरा रहेगा। तब उन ब्राह्मणोंने हर्षसे कहा कि हम इस विषय में आदिप्रभुके चरणोंमें निवेदन करेंगे।
प्रेमपूर्ण वाक्यसे सम्राट्ने सबको अपने स्थानके लिए विदाई कर स्वयं राजमहलको ओर चले गये व वापर क्षेमसे अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।
पाठक ! भरतेश्वरके भात्मकला नेपुण्य, तद्विषयक हर्ष व गुणक पक्षपतित्वको देखकर आश्चर्य करते होंगे । लोकमें सर्व कलाओके परिज्ञानसे आत्मकलाका परिज्ञान होना अत्यन्त कठिन है जिसने अनेक भवोसे आत्मानुभवका अभ्यास किया है वही उसमें प्रवीण होता है। इसके अलावा जो गुणवान हैं उन्होंको गुणवानोंको देखकर हर्ष होता है । विवेकशील व्यक्ति ही वास्तविक गुणोंका अनुभव करता है । भरतेवर इसोलिए रात्रिदिन यह भावना करते हैं कि
हे परमात्मन् ! सामने उपस्थित गुणको व तुम्हारे गुणको परीक्षा करते हुए सामनेके गुणको एकवम भूलकर, वह यह के संकल्प विकल्पोस रहित होकर रहनेको अवस्थामें मेरे हृदय में सवा बने रहो, यही प्रार्थना है।
हे सिद्धात्मन् ! आप नित्य ही अपने आपके ध्यानमें मग्न होकर लोकके सत्या-सत्य समस्त पदार्थोंको साक्षात्कार करते है । अतएव अत्यन्त सुखी हैं । मुझे भी सन्मति प्रदान कीजिये। ___ यही कारण है कि वे सदा गुणोंके अखंड-पिंडके रूपमें अनुभवमें माते हैं।
इति ब्राह्मणनाम संधिः