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________________ भरतेश वैभव निकालते हुए कहा स्वामिन् ! धन्य है, आज हम लोग कृतकृत्य हुए। सिद्धान्तश्रवणके हर्ष से उसी समय उठकर उन लोगोंने बहुत भक्तिसे प्रणाम किया। शूद्र, क्षत्रिय व वैश्योंने जब नमस्कार किया तो विप्रसमूह आनन्द व उद्रेकसे अनेक मंगल-सामग्नियों को हाथमें लेकर भरतेश्वरके पास गया । उनकी आंखोंसे आनन्दवाष्प उमड़ रहा है। शरीरमें रोमांच हो गया है। शरीर हर्षसे कम्पित हो रहा है । मुखमें नवीन कान्ति दिख रही है । हैसते-हंसते आनन्दसे फूलकर के सम्राटके पास पहुंचे व प्रार्थना करने लगे कि स्वामिन् ! आपकी कृपासे मनका अन्धकार दूर हुआ। सुज्ञान सूर्यका उदय हआ । इसलिए आप चिरकालतक सुखसे जीते रहें। जयवन्त रहें। आपको जयजयकार हो। यह कहते हुए भरतेश्वरको उन विनोंने तिलक लगाया। बाकीके लोगोंको हर्षकी अपेक्षा आत्मतत्वको सुनकर इन विप्रोंको अधिक हर्ष हुआ है। भरतेश्वर भी हर्षसे सोचने लगे कि ये विशिष्ट जातिके हैं, तभी तो इनको हर्ष विशेष हुआ है। सम्राट पुनः सोचने लगे कि ये विप्र विशिष्ट जातिके हैं इसलिए आत्मकलाकी वार्ताको सुनकर प्रसन्न हुए है । चन्द्रमाकी कलाको देखकर चकोर पक्षीको जिस प्रकार आनन्द होता है, कौवेको क्यों कर हो सकता है ? उस दिन आदिब्रह्मा परमपिताने इस वर्णनको बाकोके वर्षों के लिए गुरुके नामसे कहा है। आज वह बात प्रत्यक्ष हुई । सचमुचमें इनका परिणाम देहपिण्ड परिशद्ध है। तदनन्तर विनोदके लिए उनसे सम्राट्से पूछा कि विप्रो ! चिद्रूपका अनुभव किस प्रकार है ? कहो तो सही । तब उत्तरमें सन लोगोंने कहा कि आदिनाथ स्वामीके अग्र पुत्रकी बोल, चाल ६ विशाल-विचारके समान वह आत्मानुभब है। स्वामिन् ! आदिचकेश्वर भरत हो उस आत्मकलाको जानते हैं, हम तो उसे पढ़ सुन कर जानते हैं ! वह ध्यान क्या चीज है, हमें मालूम नहीं है । आगे हमें प्राप्त हो जाय यही हमारो भावना है। भरतेश्वरने सोचा कि परमात्मयोगका अनुभव इनको मौजूद है। सथापि अपने मुखसे उसे कहना नहीं चाहते । आधा भरा हुवा घड़ा उथल पुथल होता है, भरा हुआ घड़ा स्तब्ध रहता है, यह लोककी रीति है। भरतेश्वरने उनको संबोधन कर कहा कि आप लोग आसन्न भव्य ......... aantiaunks
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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