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भरतेश वेमय देवगण सम्राट्ने आर्यिका सुनंदाके चरणों में नमोस्तु किया। सुना आर्यिकाने आशीर्वाद दिया। तदनंतर सम्राट् भगवान व मुनिगणोंकी वंदना कर थोड़ासा व्याकुल चित्त होकर वहाँसे लौटे। ___ गंधकुटीका विहार उसी समय अन्य दिशाको ओर हुआ। इधर भरतेश्वर पोदनपुर महल में पहुंचे। इतनेमें अकोसिकुमार व आदिराण भी वहां पहुंच गये थे । पोदनपुर महलमें बाहुबलिके सोनों पुत्र माता सुनंदाके जानेसे बड़ी चिंतामें मग्न है । उनको भरतेश्वरमे अनेक प्रकारसे सांत्वना देनेका प्रयल किया । और हर तरहसे उनके दुःखको दूर करनेका उद्योग किया।
सम्राट्ने कहा-बेटा ! आज पर्यंत छोटो मां, हम और तुम्हारे प्रेमसे यहाँ रहीं। अब भी तुम लोगोंको तृप्ति नहीं हुई ? अब उनको अपना आत्मकल्याण कर लेने दो। महाबलराज ! व्यर्थ ही दुःख मत करो। बुढ़ापा है। उनका शरीर शिथिल हो गया है। ऐसी हालतमें संयमको ग्रहण करनेसे देवगण भी उनका स्वागत करते हैं। ऐसे विभवको देखकर हमें संतुष्ट होना चाहिए। मुख फरमा पदापि उचित नहीं है। बेटा ! सोच लो।
महाबल कुमारने उत्तर में कहा कि पिताजी! हम लोगोंको तो दुःस किस बातका है ? आपका एक अनुभव मात्र चाहिये हम लोगों को तो उसी दिन रास्तेमें छोड़कर हमारे माता पिता चले गये थे। हम छोटे बच्चे हैं, ऐसा समझकर हमारे पिता उस दिन रुके क्या ? हमारो मातायें उस दिन बाते समय हमसे कहकर गई क्या? हमें धूलमें डालकर वे चले गये। केवल चक्रवर्तीने ही हमारा संरक्षण किया, इसे मैं अच्छी तरह जानता है। दादी ( सुनंदादेवी) उसी दिन जानेके लिए उद्यत हुई थीं। परन्तु भापके आग्रहसे, भगवतके अनुग्रहसे व हम लोगोंके देवसे अभीतक रहीं । लोकमें सबको माता व पिसाके नामसे दो संरक्षक होते हैं। परन्तु हमें कोई नहीं है, हमें तो मां और बाप दोनों आप ही हैं। ___ जब छोटेपन में ही हमने आपका आश्रय पाया है, फिर आज क्या होता है ? आप अकेले रहें तो पर्याप्त हैं । हम बहुत भाग्यशाली हैं।
इतने में अकीर्तिकुमारने कहा कि भाई ! दुःख मत करो। उस दिन पिताजी तुम लोगोंका संरक्षण करेंगे, यह समझकर ही काका व काको वगैरह चले गये। इसमें उनका क्या दोष है ? पुरुनायके वशमें कोई एक दे