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भरतेश वैभव
करती है | क्योंकि उसे पुत्र नहीं है। पर हाँ । वह बांझ नहीं है । मरीचि - कुमार नामक सबसे बड़े पुत्रको इसीने जन्म दिया है | परन्तु भगवान् आदिनाथ के साथ दीक्षा लेकर वह मुनि हो गया था, फिर पागल भी हो गया ।
भरतजीने अपनी चिन्तातुर हृदयको किसी तरह समझा-बुझाकर तीन दिनमें शांत किया । एक दिन महलको छतपर बैठे हुए थे। इतने में दूरसे आकाशमें पुष्पका बाण, तारा या पक्षीके समान भरतेश्वरकी ओर आते हुए देखने में आया । भरतेश्वर विचार कर ही रहे थे, इतनेमें वह पास आया तो मालूम हुआ कि वह एक कबूतर है। जब बिलकुल पास ही वह आया तो उन्होंने देखा कि उसके गलेमें भरतेश्वरनें उसे खोलकर बाँचा तो उसमें निम्न
एक पत्र बंधा हुआ है। पंक्तियाँ थीं ।
पोदनपुर महल
मिति ..
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श्री प्रिय पुत्र भरतको पौदनपुर से माता सुनंदादेवीका सतिलक आशीर्वाद । अपरंच पत्र लिखनेका कारण यह है कि हमारे नगरके पास बाहुबलि केवलोकी गंधकुटी आ गई है । इसलिए इस पत्र को देखते ही ( तार समझकर ) यहाँपर तुम चले आओ, बहुत जरूरी काम है । सो फौरन चले आना । कल या परसों कहोगे तो मेरा मिलना कठिन है। विशेष क्या लिखूं । इति स्वाहा ।
सुनंदादेवी
भरतेश्वरने पत्र बाँचते ही उस पत्र को नमस्कार किया । और समझ गये कि यह दीक्षा लेने की तैयारी है। उस कबूतरको समाधान कर स्वतः विमानमार्ग तत्क्षण पोदनपुर के लिए रवाना हुए।
पोदनपुर पहुँचकर पुत्रोंके स्वागतका स्वीकार करते हुए माता सुनंदादेवी के महल में पहुँचे । वहाँपर माता के चरणों में नमस्कार कर आशीर्वाद लिया। पास में बंटे हुए पुत्रको देखकर माता सुनन्दादेवीको भी हृषं हुआ । माता बहुत विनयके साथ प्रश्न किया कि माता ! तुम्हारा अभिप्राय क्या है ? आपकी बड़ी बहिन के समान हम सबको छोड़कर जानेका है