SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव उसे स्वीकार नहीं किया । वहां उपस्थित मुनिराजोंने मुझे दबाया, मैं उस समय क्या कर सकता था। तुम ही बोलो! उन तपस्वियोंने कहा कि भरत ! क्या तपश्चर्याक कार्यमें भी विघ्न करते हो? इस बातसे डरकर में चुप रह गया। पूनः कहने लगे कि अपर वयमें तप करना ही चाहिये। माताने भी मेरे प्रति कृपा नहीं की वह चली ही गई। जाने दो, बुढ़ापा है । अपना ये आत्मकल्याण कर लेवें । अपनेको भी अपने समयमें आत्महितको देख लेना चाहिए । अब दुःख करनेसे क्या फायदा ? इस प्रकार उन सबको भरतेश्वरने समझाया । रानियोंको फिर मी समाधान नहीं हुआ उनका कोई बहुमूल्य आभरण ही खो गया हो, उस प्रकार उनको दुःख हो रहा था ! बड़े शोकके वेगसे निम्नमुखी होकर सब बैठी थीं। इतनेमें अनन्तसेना देवी रानीने आगे बढ़कर मरतेश्वरके चरणों में मस्तक रखकर प्रार्थना को किनाप ! सास्के समान में भी यात्मकल्याणके लिए जाती है। मुझे भेजो। दुपहरके धूपके समान योवन चला गया । कोई-कोई बाल भी सफेद हुए हैं। अब भोगका अनुभोग करना उचित नहीं है । अब योगके लिए नुको अनुगतियो। भरतेश्वरने सुनकर कहा कि ठीक है, अब भोगका समय नहीं है. संयमका समय है, दूर जानेकी जरूरत नहीं । यहाँपर महलके जिन मंदिर में रहकर आत्मकल्याण कर लेना । तब अनन्तसेना देवीने कहा कि मुझे मातुलानीके साथ रहकर तप करने की इच्छा है। भरतेश्वरने साफ इनकार किया कि इसे में स्वीकार नहीं कर सकता । तब वह फिर भी आग्रह करने लगी। भरतेश्वरने अन्य रानियोंको आँखोंका इशारा किया। तब सब रानियोंने मिलकर कहा कि हम लोग भो तपश्चर्याके लिए जाती हैं। तब कहीं अनन्तसेना देवी मंदिरमें तप करनेके लिए राजी हुई । उस अनन्तसेना देवीके वयकी अन्य कई रानियोंने भी कहा कि हम लोगोंको भी भोग से सृप्ति हुई है । इसलिए हम भी मंदिरमें रहकर बात्मकल्याण कर लेंगी। तब सम्राट्ने उसे स्वीकार किया। __ मुनिराजोंक हायसे उन सबको एकभुक्ति ब्रह्मचर्यव्रतको दिलाकर अर्जिकाओंके पास उनको रहने की अनुमति दी । तदनन्दर वे अपने नियम संयममें दृढ़ रहीं। ___ वे संयमिनि अब प्रतिनित्य एकभुक्ति करती हैं । जिनको पुत्र है ये तो अपने पुत्रों के महल में जाकर एक बार भोजन करती हैं, मोर मंदिर जाती है। परन्तु मनन्तसेनादेवी मात्र अपने पोतोंके घर जाकर भोजन
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy