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भरतेश वैभव समाचार मालूम हुआ तो उनको बहुत दुःख हुना। वे अनेक प्रकारसे विलाप करने लगीं।
"यह गंधकुटी न मालूम कहाँसे आई ? हमारी सासूबाईको ही लेकर गई? उसीके लिए यह आई था क्या ?"
हा ! हमारी विधि क्या ? क्या समय है ! हमारी मातुलानोको ले गयी ? अब हमारी महल सूनो हुई ।
हमसे उसका कितना प्रेम था! बुलाते समय कितने प्रेमसे बुलाती पी ! उसमें भेदभाव तो दिखता ही नहीं था ! ऐसी परिस्थितिमें उनका भी विचार हमें छोड़कर जानेका हुआ ! आश्चर्य है !
हम लोगोंने यदि पर्वोपवास किया तो हमारे लिए सार्वभौमके प्रति नाराज होती थी। देवी ! अब हम लोगोंको पूछनेवाले कौन हैं ? आपने तो इस महलको जंगल पागा मिा ।
देवो ! हम यहां आकर आपके प्रेमसे अपने माता पिताओंको भूस गई। हर तरहसे हम लोगोंको अपने सौख्यसम्पत्ति देकर प्रसूत माताक समान व्यवहार किया । फिर अपनी संतानोंको छोड़नेकी इच्छा कैसे हुई ?
जगन्माता ! सम्राट्से जब आप अनुरागसे बोलती थीं और सम्राट बक आपसे बोलते थे, उसे सुनकर हम लोग आनन्दसे फूली न समाती थीं । ऐसी अवस्थामें हम लोगोंको दुःख देना क्या आपको उचित है ?
इस प्रकार बिलाप करती हुई पतिदेवके चरणोंमें आकर पड़ीं। और प्रार्थना करने लगी कि देव ! आफ्ने मो उनको रोका नहीं ? बड़ा हो । अनर्थ किया।
सनाद-रोकनेसे क्या होता है ? । वे सब-आप मंजूरी न देते तो क्या वे जबर्दस्ती दीक्षा देते ? समाद-थे मंजूर करा नहीं सकते हैं ?
में सब आपका चित्त बहुत कठिन हो गया है, हा ! आपने कैसे ! स्वोकार किया समझमें नहीं आता।
भरतजी रानियोंकी गड़बड़ीको देखते खड़े ही रहे। इतनेमें सबकी बांधलीको बन्द कराकर पट्टरानी स्वतः बीचमें आई और पूछने लगी कि स्थामिन् माप वहाँपर थे, आपने यदि नहीं कहा तो मातुलानी फिर भी गई? उत्तरमें भरतजोने कहा कि देवी ! मैंने पैरों पकड़कर प्रार्थना की।