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भरतेश वैभव सन्मान कर उनके लिए सजे हुए महलोंमें भेजा व भरतजी सुखसे अपना समय व्यतीत कर रहे थे।
भरतजीके पुत्र अपनी नववधओं के साथ सम्राट्की माताके दर्शनके लिए गए । एवं उनसे योग्य आशीर्वादको पाकर आनन्दसे रहने लगे।
भरतजीका समय सदा आनन्दसे ही जाता है। क्योंकि उनको किसी का भय नहीं है, सात्विक विचारों से वस्तुस्थितिका वे परिज्ञान करते हैं । अतएव सदा आनन्दमें ही मग्न रहते हैं । उनकी भावना है कि
हे परमात्मन् ! आप असहायविक्रम हो, विक्रांत अर्थात् पराक्रमियोंके स्वामी हो, तामसवृत्तिको दूर करनेवाले हो, सतत आनंदस्वरूप हो, एवं प्रभारूप हो, इसलिए हे स्वामिन् ! मेरे हृदय में सदा बने रहो।
हे सिद्धात्मन् ! आप सुन्दरोंके राजा हो, सुरूपियोंके देव हो, सुभगोंके रत्न हो, लावण्यांगोंके स्वामी हो, सांस्यसम्पन्न हो, आप मुझे सन्मति प्रदान करें।
इसी पुण्ययय भावनाका फल है कि भरतजी सर्वदा आनन्द हो आनन्द में रहते हैं।
इति-जनकसंदर्शन संधिः
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जननी-वियोग-संधिः युवराजके आनेके बाद जयकुमार भी अपने परिवारके साथ स्वदेश जानेके लिए निकले । जाते समय रास्तेमें अपनी सेनाको छोड़कर स्वयं चक्रवर्तीसे मिलकर गये।
भरतजीके महल में ही आनन्द हो रहा है । भानुराज ओर विमलराज का रोग नये-नये मिष्ठान्न भोजन, वस्त्र रस्नादिकसे सन्मान हो रहा है। सम्राट् ही जिनपर प्रसन्न होते हैं उनकी बात ही क्या है ? भानु, विमल भानुराज और विमलराज हुए । उनको हाथी, घोड़ा, रस्लादिक उपहार में देकर उनकी विदाई की गई।