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भरतेश वैभव
करते थक गये होंगे। तब एकदम सर्व पुत्र खड़े हुए। युवराजने हाथ जोड़कर कहा कि पिताजी ! परदेश में हम लोग बड़े आनन्द के साथ विहार कर रहे थे, तब सर्व समाचार आपकी तरफ आते थे, उस बीच में एक अप्रिय कटु समाचार भी पहुँचा मालुम होता है | लोकमें अन्यायको तरफ चित्त लगा कर यदि आपको चिंता उत्पन्न करूं तो क्या में आपका पुत्र हो सकता हूँ ? पुत्र जो लीलाके लिए उत्पन्न होता है, वह शूलक लिए कारण हुआ ?
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निताजी ! मुझे सुखोंकी अपेक्षा करनेकी क्या आवश्यकता है ? आपके नामको सुनते ही सुख अपने आप चलकर आते हैं । आपके उदरमें आकर क्या मैं मार्ग छोड़कर चल सकता हूँ ?
भरत जोने कहा कि बेटा ! बहुत से समाचार आये, परन्तु उसी क्षण उनका निरसन भी हो गया। सूर्यको यदि मेघाच्छादन हुआ तो वह कितनी देर रह सकता है । इसी प्रकार मेरे हृदयमें चिता अधिक समय नहीं टिक सकती है । तुम तो मार्ग छोड़कर जा नहीं सकते, मेवेश तो मेरा पुत्र ही है, दूसरा नहीं है। ऐसी अवस्था में कोई चिनाको बात नहीं है, तुम लोग भी भूल जाओ ।
पुत्र भी भरतजी की बात को सुनकर प्रसन्न हुए। एवं पिता के चरणों में उन्होंने पुनः भक्तिसे प्रणाम किया। उस समय सम्राट्ने अनेक वस्त्र इत्यादिकोंको प्रदान कर पुत्रोंका सन्मान किया । बुद्धिसागर मंत्री भी प्रसन्न हुए। इतने में जोरसे शंखनाद हुआ। उस शब्दको सुनते ही सब लोग बहाँसे उठे । सम्राट् भो भानुराज व विमलराजको अपने साथ लेकर पुत्रोंके साथ महलकी ओर रवाना हुए। रास्ते में भानुराज व विमलराजको राजशब्दसे संबोधन करते हुए उनको प्रसन्न कर रहे थे।
कुसुमाजी व कुंतलावती इन दोनों रानियोंके आनंदका वर्णन हो क्या करें। क्योंकि उनके सहोदरोंको सम्राट्ने राज के नामसे पुकारा है। अपने भाईको जो आनंद होता है। उससे स्त्रियों को परम हर्ष होता है । अपनी बहिनों को जो आनंद होता है उससे पुरुष प्रसन्न होते है। उस बातका वहाँपर अपूर्व संयोग था । बहिनोंनें दोनों भाइयोंका योग्य विनय किया, तब पुत्रोंने भी आकर अपनी माताओंके चरणों में मस्तक रखखा । उस समय गंगाप्रवाहके समान प्रेम व भक्तिका संचार हो रहा था। तदनंतर तीस हजार अपने पुत्रोंके साथ एवं दोनों सालोंके साथ भरतजीने एक ही पंक्तिपर बैठकर अमृतान्नका भोजन किया तदनंतर उनका योग्य रूपसे