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________________ भरतेश वैभव युवराजको संतोषके साथ लक्ष्मीमति को समर्पण किया। मंगलाष्टक, होमविधान, जलधारा इत्यादि विधिसे विवाह किया। राजा अकंपनने सर्व महोत्सवको पूर्णकर राजमहल में प्रवेश किया। दूसरे दिन मेघराज शकुमार ) और नुलोचना गहुत भाने लिबाह हुआ और अष्टचन्द्रों के भी विवाह हए । आदिराजका भी इस समय किसो कन्याके साथ विवाह करानेका था । परन्तु उसके लिए योग्य कन्या नहीं थी। अतएव नहीं हो सका। भरतजीने जिस प्रकार पुण्यके फलसे अनेक सम्पत्ति और सुखके साधनोंको वाया है उसी प्रकार उनके समस्त परिवारको भी रात्रिदिन सुख ही सुख मिलता है। इसके लिए अर्ककोतिका ही प्रकृत उदाहरण पर्याप्त है। अर्ककीर्ति जहाँ भी जाते हैं वहां उनका यथेष्ट आदर-सत्कार होता है, भव्य स्वागत होता है, इसमें भरतजीका भी पुण्य विशेष कारण है। कारण यशस्वी व लोकादरणीय पुत्रको पानेके लिए भी गिताको भाग्यको आवश्यकता होती है। अतएव जिन लोगोंने पूर्वभवमें इन्द्रियसुखोंकी उपेक्षा को है, संसार शरीर भोगोंमें अत्यधिक आसक्त न हुए है उनको परभवमें विशिष्ट भोग वैभवको प्राप्ति होती है । भरतजीने प्रतिबन्ममें इसी प्रकारको भावना को थी कि जिससे उनको व उनके परिवारको सातिशय सम्पत्ति व परमादरकी प्राप्ति होती है । उनकी प्रतिसमय भावना रहती है कि : हे परमात्मन् ! आप इन्द्रियसुखोंको अभिलाषासे परे हैं, इंद्रियोंको आप अपने सेवक समझते हैं। उन सेवकोंको साप लेकर आप अतीन्द्रिय सुखको साधन करने में मग्न हैं । इन्द्रवंदित हैं। इसलिए हे अमृतरसयोगीन्द्र ! आप मेरे हृदयमें सदा बने रहें । हे सिद्धात्मन् ! आप लक्ष्मीमिधान हैं, सुखनिधान हैं, मोक्षकलानिधान हैं, प्रकाशनिधान और शुभ निधान हैं; एवं ज्ञाननिधान हैं। अतएव प्रार्थना है कि मुझे सन्मति प्रदान करें। इति लक्ष्मीमति विवाहसंधिः ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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