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________________ भरतेश वैभव नाभशलापसंधि विवाह होने के सात-आठ रोज बाद आदि राजने अर्ककीर्ति महलमें पहुँचकर अष्टनंद्र व दुष्टमंत्रियोंने जो कुछ भी कुतंत्रकी रचना की थी, सर्व वृत्तांत अपने भाईको कहा। अर्कोति एकदम क्रोधित हुआ । आदिराजकी तरफ देखते हुए कहने लगा कि दुष्टों को इस प्रकार क्षमा कर देना उचित नहीं हैं । परन्तु तुमने क्षमा कर दो, अब क्या हो सकता है ? जाने दो। आदिराजने कहा कि भाई ! क्या उन्होंने अपने सुखके लिए विचार किया था ? आपके लिए उन्होंने कम्याकी तैयारी की थी। अपने ही तो वंशज हैं, उनका अपराध जरूर है, उसे एक दफे क्षमा कर देना आपका कर्तव्य है । ३१ उत्तर में अर्ककोर्तिने कहा कि कुमार ! तुम्हारे विचार, कार्य आदि सभी असदृश हैं। तुम बहुत बुद्धिमान् व दूरदर्शी हो। इस प्रकार कहकर मुसकराते हुए आदिराजको वहाँसे रवाना किया । सुलोचना स्वयंवर के संबंध में जो समर हुआ वह मिरा चुतका संचार है उसी का भी देश की सर्व दिशा में एकदम फैल गई । छिप नहीं सका । यह युद्धको वार्ता इस समाचारके सुनते ही अकंकीति और आदिराजके मामा भानुराज और विमलराज वहाँपर आये । क्योंकि लोकमें कहावत है कि माता से भी बढ़कर मामाकी प्रीति हुआ करती है। आये हुए मातुलोंका दोनों भाइयोंने बहुत विनय के साथ आदर किया । एक दिनकी बात है कि अर्ककीर्तिकुमार अनेक राजाओंके साथ दरबार में विराजमान है । उस समय गायकगण उदयरागमें आत्मस्वरूपका वर्णन गायनमें कर रहे थे उसे बहुत आनन्दके साथ सुनते हुए अर्केकीति अपने सिंहासनपर विराजे हैं । उस समय दूरसे गाजेबाजेका शब्द सुनाई दे रहा था। सबको विचार हुआ कि यह क्या होना चाहिये। एक दूत दौड़कर बाहर जंगलमें गया और आकर कहने लगा कि स्वामिन्! आकाशमार्ग में अनेक विमान आ रहे हैं । इसका बोलना बन्द भी नहीं हुआ था, इतने में एक सेवक और आया । उसने अर्ककीतिको विनय के साथ नमस्कार कर कहा कि स्वामिन्! सम्राट्का मित्र नागर आ रहे हैं। तब युद्धके वृत्तांतको सुनकर सम्राट्ने उनको यहाँपर भेजा होगा, इस प्रकार सब लोग सोचने लगे । इतने में नागर अकेला उस दरबार में प्रविष्ट हुआ । क्योंकि उसे कोई I
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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