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________________ भरतेश वैभव युवराज अकंकीतिको हम उत्तम कन्यारत्नकी योजना कर रहे हैं, ऐसी अवस्थामें तुम उसमें विघ्न मत करो। इस प्रकार सब लोग जोरसे कहने लगे, तब सम्मति मौनसे खड़ा हुआ । उद्दण्डमतिने यह भी कहा कि उपाय से मैं युवराजको समझाकर इस कार्य में प्रवृत्त करूँगा । २० इस प्रकार अष्टचन्द्र दुष्टमंत्रीके वचनको सुनकर विशिष्ट मंत्रीका तिरस्कार करने लगे तब वह सन्मति वहाँसे चला गया। सूर्यदेव भी इस अन्यायको देख न सकने के कारण अस्तंगत हुआ । दूसरे दिन प्रातःकाल युवराज के कान में सब बात डालेंगे, इस विचारसे सब अपने-अपने मुकाम में गये । लोक में बहुत ही विचित्रता है, लोग अपने-अपने मतलब से वस्तुस्थितिको भूलकर अनेक प्रकारके संक्लेश, लोभ आदिके वशीभूत होते हैं एवं विश्व में नशान्ति उत्पन्न करते हैं । यदि उन लोगोंने आत्मतत्व का विचार किया तो परतत्त्व के लिए होनेवाले अनेक अन्तःकलहका सदाके लिए अन्त हो। इसलिए महापुरुष इस बातकी भावना करते हैं, हमें सदा आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो । "हे परमात्मन् ! तुम परचिन्तासे मुक्त हो, आकाश हो तुम्हारा शरीर है; ज्ञानके द्वारा वह भरा हुआ है, अथवा शीतप्रकाशमय तुम्हारा शरीर है, हे सत्पुरुष ! तुम्हारे लिए नमोस्तु है । हे सिद्धात्मन् ! सुज्ञानशेखर ! पुण्यात्माओंके पति ! गुणज्ञोंके गणनीय अधिपति ! लोकगुरु मेरे लिए सन्मति प्रदान कीजिये ! इसी पुण्यमय भावनाका फल है कि महापुरुषोंके जीवन से विश्व शान्तिका संचार होता है। इति स्वयंवरसंधिः । 1001 र
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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