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भरतेश वैभव
लक्ष्मीमति विवाह संधि धूर्तों के खेलको धोड़ा देखू, एवं युवराज अर्कोतिके मंगलकी वार्ताको सुनकर जाऊँ, इस विचारसे सूर्यदेव उदयाचलकी ओरसे आया ।
प्रातःकाल उठकर मुखप्रक्षालनादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर सर्व राजा उद्दण्डमतिको साथमें लेकर अर्ककीतिके पास पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही अकंकीतिने प्रश्न किया कि आप लोगोंके कार्यका क्या हुआ? तब सब लोगन उडप्रति कहा कि तु म बोलो । सब जग मौनसे रहे।
उद्देइमतिने विचार किया कि यदि में यह कहूँ कि सुलोचनाने किसी एकके गले में माला डाल दी तो युवराजका मन उस कन्याकी ओर आफर्षित नहीं होगा। इसलिए अब किसी उपायसे इनको सब वृत्तांत कहना चाहिए । उस समय युवराजको बहकाते हुए कहा कि
स्वामिन् ! वह कन्या स्वयंवरशालामें दाखिल हई तो किसीको भी अपने मनसे माला नहीं डाली, उसके मनमें न मालम क्या था । यहाँपर आनेके बाद किसीके गले में माला जरूर डालनी ही चाहिए, इस प्रकारसे उसके आप्तोने कहा । फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही। मालूम होता है कि वहाँ एकत्रित राजाओंमें कोई पसन्द नहीं आया। राजन् ! उन के चुकियोंको मेघेश्वरने लांच { रिश्वत ) दिया होगा, सो उन्होंने मेवेश्वर की खूब प्रशंसा की । तथापि सुलोचनाने उसकी ओर देखकर अपने मुख को फेर दिया । राजा अकंपनको चिंता हुई।
राजा अकंपनने विचार किया कि यहाँ उपस्थित राजाओंमें किसी न किसीके साथ विवाह होना ही चाहिए । नहीं तो बहुत बुरी बात होगी। इसलिए उसके गलेमें माला डाल दो। इस प्रकार राजा अकंपनने कंचुकियों से सुलोचनाके कान में कहलाया । तो भी सुलोचना तैयार नहीं हुई । इतने में एक मखी ने उसके हाथसे माला छोनकर मेघेश्वरके गलेमें डाल दी व जयजयकार करने लगी। राजा अकंपनने किसी तरह अपनी बेटीका पति बनाया । वह सुलोचना भी अपनी इच्छा न होते हुए भी परवश होकर उसके पीछे पीछे गई । इधर उस अन्यायको देखकर राजाओंको बहुत बुरा मालूम हुआ। प्रसन्नताके साथ उसके मनसे किसी एकके गलेमें माला डालना यह उचित है । परन्तु उसको इच्छा न होते हुए जबर्दस्ती किसीके गलेमें माला डलवाना क्या यह अन्याय नहीं है ? क्या ये क्षत्रिय नहीं हैं। हाँ! मार्गसे चले तो कोई बात नहीं है । वक्रमार्गसे जावे लो कौन सहन