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भरतेश वैभव
फलसे स्वगंगतिको पाते हैं। क्षपकश्रेणी में चढ़कर जो निश्चयशुक्लका अवलम्बन करते हैं वे अपवर्गको (मोक्ष को) ही पाते हैं ।
श्रुत विकल्पसे बढ़कर आत्मामें दिखनेवाला प्रकाश ही व्यवहारशुक्ल है। सम्पूर्ण विकल्पों के अभाव में आत्मकलाको वृद्धिसे आत्मज्योतिका दर्शन जो होता है उसे निश्वयशुक्ल कहते हैं ।
मस्तक से लेकर अगुष्ठ तक चांदनीके शुभ्र प्रकाशकी पुतलोके समान आत्मा दिखे एवं बीच-बीच में उसमें चंचलता पैदा हो जाय उसे व्यवहारशुक्ल कहते हैं । यदि निश्चलता रहे तो उसे निश्चयशुक्ल कहते हैं ।
इस प्रकार बाहुबलि योगीने व्यवहारशुक्लके अवलंबनसे करणत्रयकी रचना की, तत्क्षण नैर्मध्यकी वृद्धिसे निश्चयशुक्लका भी उदय हुआ । वहाँपर आयुत्रिकका नाश हुआ। सातों कर्मोकी स्थिति भी ढोली होती जा रही है ।
तदनंतर आगे बढ़कर अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानपर आरूढ हुए, वहाँपर पहुँचते ही ३६ कर्मप्रकृतियोंको नाश किया।
इस प्रकार पहिलेसे उस योगीने गुणस्थानक्रमसे निम्नलिखित प्रकार कमकी बंधव्युच्छिति की 1
१ - मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तस्पाटिका, एकेंद्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वींद्रिय, तीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु १६ २- अनंतानुबंधिकोषमानमायालोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमंडल, संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराच कीलितसंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रीवेद, नोचगोत्र, तियंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, तियंचायु ।
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४- अप्रत्याख्यान
कषाय ४, वञ्चवृष मना राचसंहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी,
मनुष्यायु ।
५- प्रत्याख्यान कषाय ४
६ - अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशः कीर्ति, अरति शोक । ७- देवायु।
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८- प्रथम भाग में निद्रा, प्रचला छठे भागमें तीर्थंकर निर्वाण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रिय, तैजस, कामंण, महारकशरीर, बहारक