________________
मैं हूँ इस धर्मका म्हटका ध्यान
भरतेश वैभव विचय नामक व्यवहारधर्मध्यानको सिद्ध कर तदनन्तर शुद्धात्मस्वरूप मैं है इस धर्मका उन्होंने अवलम्बन किया।
सबसे पहिले सिद्धोंका ध्यान किया । तदनन्तर अष्टगुणयुक्तसिद्धोंके समान में हूँ इस प्रकार अनुभव करते हुए निरंजनसिद्धका दर्शन किया । __ अन्तरंगमें जैसे विशुद्धि बढ़ती जाती थी वैसे ही आत्मज्योति उज्वल होकर प्रकाशित होती थी ! नहीं रिपत्रोमा पर्म है !
दर्शन, प्रतिक, तापसि और अप्रमत्त इस प्रकार चार गुणस्थानों में उस उज्वल धर्म की प्राप्ति होती है। अतएव उसके अवलम्बनसे बाहुबलि कर्मको निर्जरा कर रहे हैं।
ध्यान करते समय यह ज्योति प्रकाशमान होकर दिख रही है, पुनः उसी समय वह धंधली हो जाती है। इस प्रकार हजारों बार होता है, अर्थात् हजारों बार प्रमत्त खोर अप्रमत्तकी परावृत्ति होती है। उज्वल प्रकाश जिस समय दिख रहा है तब अप्रमत्त अवस्था है। जब वहाँ अन्धकार भाता है तो प्रमत्तदशा है। प्रमत्त और अप्रमत्तका यही मेद है।
इस प्रकार इस आत्माको मोक्षके प्रधान मार्ग में पहुँचाकर अप्रमत्त, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण इस प्रकार करणत्रयका अवलम्बन वह योगी करने लगा तब धर्मयोगका प्रभाव और भी बढ़ गया ।
पुनः जब उन्होंने एकाग्रतासे निश्चय धर्मयोगका अवलम्बन किया तो निरायास नारक, सुर व तिर्यगामुष्य नष्ट हुए। तदनन्तर तत्क्षण अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व इस प्रकार सप्तप्रकृतियोंका सर्वथा अभाव होनेपर क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई।
सप्तप्रकृति ही आत्माके संसार परिभ्रमणके कारण है, जब उनका अभाव होता है तब आत्मामें नेमल्य बढ़ता है। सम्यक्त्वमें दृढ़ता आती है । इसे क्षायिक सम्यक्स्व भी कहते हैं । इक्ष्वाकु सम्यक्त्व भी कहते हैं ।
अप्रमत्त गुणस्थानसे आगे बढ़े, अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें आरूढ़ हुए। उस स्थानमें प्रथम शुक्लध्यानको प्राप्ति हुई। वहाँपर दो प्रकारके शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है। एक व्यवहारशुक्ल और दूसरा निश्चयशुक्ल । व्यवहारशुक्लसे देवगतिको पा सकते हैं, निश्चयशुक्लसे मोक्षकी प्राप्ति होती है।
उपसमवेणीमें जो चढ़ते हैं वे व्यवहारशुक्लका अवलम्बन कर उसके