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________________ भरतेश वैभव 1 योगिराज ! विचार करो छिपाने की क्या बात ? जिस समय षट्खंडको विजयकर में वृषभाद्रिपर विजयशासनको लिखनेके लिए गया था वहाँपर मेरा शासन लिखनेके लिए जगह नहीं थी । सारा पर्यंत पूर्वके राजाओंके शासन से भरा हुआ था, फिर मुझे एक शासनको उससे घिसाकर मेरा शासन लिखवाना पड़ा ऐसी अवस्था में इस पृथ्वीको आप मेरी कहते हैं क्या ? इस जमीनको तो बात ही क्या है, यह मिट्टी है, स्वर्गके रत्नमय विमान कल्पवृक्ष आदि स्वर्गीय विभूति भी देवोंकी नहीं होती है, जोड़कर जाना अता है कि इस पृथ्वी और मनुष्योंकी क्या बात है ? फिर आप यह पृथ्वी मेरी कैसे कहते हैं ? P गुरुदेव ! विचार तो कीजिये, यह शरीर जब अपना नहीं है तब अन्य पदार्थ अपने कैसे हो सकते हैं। भरतजी के वचनको सुनते हुए बाहुबलिका गर्व गलित हो रहा था। "और देखो, तुम इस पृथ्वीको तृणके समान समझकर लात मारकर आये परन्तु मैं उसे छोड़ नहीं सका, इसलिए तुम गुरु हो गए, मैं लघु हो रहा।" इसे सुनते हो मुनिराज का मान और भी कम होने लगा है। भवभ्रमणके लिए कारणभूत शल्यमूलको वाक्यमंत्रसे चक्रवर्तिने दूर किया | अब उस योगीका चित्त शान्त हुआ, ध्यानसंपत्तिकी प्राप्ति हुई । भरतजी भी बहुत चतुर हैं उस दिन अपनेको नमस्कार किए हुए माईको आज मुनि होनेसे नमस्कार किया है। उसमें मुनि होकर भी - बाहुबलिके मनमें संक्लेश हुआ । परन्तु गृहस्य होनेपर भी भरतजीके मनमें कुछ नहीं। क्या ये राजा हैं या राजयोगी हैं ? शरीरको नंगा कर और मनको अन्धकारमें रखकर वह बाहुबलि योगी खड़े थे। उनके मनमें जो शल्य था उसे भरतजीने दूर किया तो दोनोंमें संयम किसका अधिक है ? इस सम्राट्को बाह्यसे सब कुछ है तो क्या बिगड़ा ? और इस बाहुबलिने बाह्यमें सब छोड़ दिया तो उसे क्या मिला ? जो आत्मासे बाह्य हैं व बाह्यमें घोर तपश्चर्या करें तो भी कोई उपयोग नहीं होता है । भवितात्म भरतजी के वचनको सुनते सुनते चित्तका अन्धकार दूर होता जा रहा था, दीपकके समान आत्मरूपका दर्शन हो रहा था । चित्तके समस्त व्यग्रभावको दूर करके अपने चित्तको योग्य दिशा में लगानेपर विषयग्रामको ओरसे उपयोग हट गया। अब उनका शरीर भी अत्यन्त निष्कम्प हुआ है । सबसे पहले आज्ञाविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय व अपाय
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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