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________________ ३० भरतेश वैभव आदिको सोनेके बरतनोंसे निकालकर देते हुए चक्रवर्ती कल्पवृक्ष, कामधेनु व चिन्तामणिको भी मात कर रहे थे । उस समय भरत चक्रवर्तीकी रानियोंके परोसने की युक्ति और उन अमृतग्रासों को मुनिराजोंके हाथमें रखनेकी चक्रवर्तीकी युक्ति सचमुच दर्शनीय थी । दोनों मुनिराज किसी भी अभिलषित कार करके भरतने जिस दिव्य अन्नको दिया उसे भोजनकर तृप्त हो गये । जिन मुनिराजोंके तपःप्रभावसे नीरस अन्न भी हाथमें आनेपर सरस बन जाता है तब चक्रवर्तीके द्वारा दिये हुए सरस अन्न किस प्रकार हुए यह बात अवर्णनीय है । स्वर्गके देवगण जिस अमृतको सेवन करते हैं उसके समान अपने लिए निर्मित आहारको अपने हाथसे षट्खण्डाधिपतिने मुनिराजों को समर्पण किया उसका क्या वर्णन करें ? चक्रवर्ती ने भुक्तिसे उन चारणमुनियोंको तृप्त किया। इतना ही नहीं, भक्तिसे भी तृप्त किया । तथा भुक्ति और भक्तिसे मुक्तिपथकी युक्तिको पा लिया । सप्तविध दातृगुण व नवविध भक्तिसे युक्त होकर जब चक्रवतींने उन योगियोंको आहारदान दिया तब उन्हें तृप्ति हो गई । उन योगियोंने जिस समय भोजन- समाप्ति की, उस समय संभवतः उन लोगोंने यह विचार किया होगा कि परमात्माका स्वात्मानन्द ही भोजन है। भोजन शरीरके लिए है। आहारादिक सेवन करना शरीरस्थितिके लिए कारण है, इसलिए शरीरको विशेषतया पुष्ट करना ठीक नहीं है । इस प्रकार हंसक्षीरनीरन्यायसे समझकर उन्होंने भोजन को पूर्ण किया । बद्ध पल्यंकासनमें विराजमान होकर चारणयोगियोंने मुखशुद्धि की । तदनन्तर हस्तप्रक्षालन कर सिद्ध-भक्तिके अनन्तर आँख मींचकर उन्होंने आत्मदर्शन किया । इतने में घंटाध्वनि रुक गई। चारों ओरसे रानियां आकर खड़ी हो गइ | योगियोंकी निश्चल ध्यानमुद्रा देखकर चक्रवर्ती मनही मन हर्षित होने लगे। अभी उन मुनियोंकी देह जरा भी नहीं हिल रही है । वे पत्थर की मूर्तिके समान निश्चल हैं। वे सिद्धांतोक्त मंत्रोंका जप करते हुए आत्माका बहुत दृढ़ताके साथ निरीक्षण कर रहे हैं ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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