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भरतेश वैभव
३१ आँखोंको खोलकर जब उन्होंने आनन्दसे राजाकी ओर देखा, तत्र भरतने बहुत उत्साह व भक्तिसे नमोस्तु किया । । ___ "अक्षयं दानफलमस्तु ते" इस प्रकार चन्द्रगति मुनिने और निर्मलामसिद्धिरस्तु" इस प्रकार आदित्यगतिने उनको आशीर्वाद दिया।
उन चरणयोगियोंके पवित्र आशीर्वादको पाकर उस चक्रवर्तीके हृदय में कितना आनन्द' हुआ यह परमात्मा ही जाने । उस समय वह इस प्रकार नाचने लगा मानो मुक्ति ही उसके हाथ में आ गई हो । ठीक ही है। सत्पात्रोंकी प्राप्तिमे किस हर्ष नहीं होगा ? उसी समय भरत चक्रवर्तीकी रानियोंने भी मुनियोंको नमोस्तु किया। मुनियोंने भी उन सबको गीर्वाणभाषामें आशीर्वाद दिया ।
उस समय भरतेशकी दानच से देव भी प्रसन्न हुए। उन्होंने इस हर्ष में नर्तन किया । आश्चर्य है कि उस समय पाँच घटनाओंके द्वारा देवोंने भुलोकको चकित कर दिया।
महमा किमी सुगंधित फूलोंके बगीचे में प्रवेश किये के समान शीत व सुगन्धयुक्त पवन बहने लगी। ___उमी समय अयोध्येश भरतके महल में स्वर्गसे पुष्पवृष्टि होने लगी। स्वर्ग से देवगण भरत के महल पर रत्नवृष्टि व सुवर्णवृष्टि करने लगे । देवगण हर्षसे अनेक प्रकार की वाद्यध्वनि करने लगे। आकाश में देव खड़े होकर भरतचक्रवर्ती की जयजयकार करते हुए प्रशंसा करने लगे।
यह दान उत्तम है, दाता उत्तम है, और पात्र भी उत्तमोत्तम है।
हे भरत ! हमने स्वर्गलोक में उत्पन्न होकर स्वर्गीय सुखका अनुभव किया तो क्या हुआ । तुम्हारे समान पात्रदान करने का भाग्य हमें कहाँ है ? हमने व्रतसे, तपसे व दानसे यह स्वर्ग प्राप्त किया यह सत्य है । परन्नू खेद है कि यहाँ व्रत नहीं, तप नहीं व दान देनेका अधिकार भी नहीं है । हे भरत ! तुम्हारा भाग्य हमें कहाँ ? __ अन्न देनेकी शक्ति तो हममें भी है। परन्तु कदाचित् हम आहारदान करनेका विचार करें तो हम प्रती नहीं हैं । अन्नती होने से हम दान देव तो जिनमुनि उसे ग्रहण नहीं करेंगे।
हे राजन् ! हम जिनेन्द्रकी पूजा करते हैं। परन्तु वह केवल उपचार है । क्योंकि उनके उदराग्नि नहीं है । किन्तु मुनियोंके उदराग्नि है । उसकी उपशांति करने का अधिकार हमें नहीं, तुम्हें है, इसलिए तुम धन्य हो।