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________________ भरतेश वैभव २७ मीपमें पड़ी हुई स्वाती नक्षत्रको बुँद क्या व्यर्थ जाती है ? नहीं ! वह तो उत्तम मोती बन जाती है। इसी प्रकार ऐसे सद्गुरुओं को दिया हुआ आहारदान व्यर्थ नहीं जाता है। उससे मुक्ति भी प्राप्त होती है । भोजन नहीं ग्रहण करनेवाली मूर्तिको द्रव्यसे पूजा करना उपचारभक्ति है। भोजन करनेवाले जिनरूपधारी गुरुओं की आहार दान देना मुख्य भक्ति है। इस प्रकार भरत चक्रवर्ती अनेक विचारोंमें मग्न हो गये, परन्तु अभी तक कोई मुनिराज नहीं आये । वे और भी चितामें पड़ गए । क्या कारण है आज मुनीश्वरोंका आगमन नहीं हो रहा है ? इतने में एक आश्चर्यकारक घटना हुई। आकाश में एक अद्भुत प्रकाश दिखने लगा | इधर-उधर न देकर उस कादिकी ओर ही भारत महान देखने लगे। अभी वह कांति रसे दिख रही है। इससे चक्रवर्तीकी उत्सुकता बढ़ने लगी । यह क्या है? एक दूसरे सूर्य के समान यह अद्भुत प्रकाश क्या है ? जिन ! जिन ! यह क्या है ? इतनेमें वह प्रकाश एकके स्थानपर दो रूपमें पृथक-पृथक दिखने लगा | भगवन् ! यह एक था अब दो हो गये। पहिले सूर्यके समान दिख रहा था, अब सूर्य व चंद्रमाके समान दिख रहा है। इतना विचार कर ही रहे थे कि वे दोनों प्रकाश पासन्यासमें आ गये । अहा ? यह तो चारणमुनियोंका शरीर है, और अन्य वस्तु नहीं है ऐसा उन्होंने निश्चय किया । सूर्यके विमान विमान जिनप्रतिमाओंका अपने प्रासादसे दर्शन करनेवाले चक्रवर्तीको इन मुनियोंको पहिचाननेमें इतनी देर न लगती, परन्तु उस दिन आकाश मेघसे घिरा हुआ था, इसलिए उनने अच्छी विचार कर निर्णय किया । तरह चिंता दूर हो गई । हर्षसे शरीर रोमांचित हो उठा । अहा ! मेरा तो भाग्योदय हुआ ! ऐसा कहकर पूजाके द्रव्यको हाथमें लेकर वे नीचे उतरे । इतने में ही वह चंद्रमण्डल व सूर्यमण्डल इस धरातलमें उतरे । गरीब मनुष्य निधियोंको देखकर हर्षसे नाच उठता है । इसी प्रकार भरत चक्रवर्ती उन मुनिनिधियों को देखकर अत्यन्त आनंदित हो उनकी सेवामें उपस्थित हुए । चक्रवर्तीने बड़ी भक्तिपूर्वक कहा, "भो मुनिमहाराज ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ !" यह सुनते ही वे दोनों मुनिराज वहां खड़े हो गये । तब भारत
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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