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भरतशयमय
बहुत दूरतक भी दृष्टि पसारकर देखते हैं फिर भी कोई नहीं दिख रहे हैं । इससे उनको मनमें बहुत दुःख हो रहा है। ___ क्या आज पर्वोपवासका दिन है ? आज कौनसी तिथि है ? नहीं, आज तो कोई पर्वका दिन नहीं है। तब फिर क्यों नहीं मुनिराज आये ? क्या कारण है कि मेरे महलकी ओर तपोनिधि नहीं आते ? कहीं किसी दुष्ट हाथी-घोड़े आदिने तो उनको कष्ट नहीं दिया ? क्या किसी दुष्टने उनकी निन्दा तो नहीं की ?
मेरे राज्यमें यदि किसीने मुनि निन्दा की तब तो मेरे राज्यको इतिश्री हो गई ? फिर मेरे अस्तित्वसे क्या प्रयोजन ? ऐसी अवस्थामें मुझे षटसण्डका अधिपति कौन कहेगा? नहीं, नहीं, मेरे राज्यमें मूनिनिन्दा करनेवाले मनुष्य नहीं हैं तो फिर आज मुनियोंका आवागमन क्यों नहीं होता?
हा ! आज मुनियोंकी सेवा करनेका भाग्य नहीं है ? सचमुचमें एक दिन भी रिक्त न होकर मुनियोंको आहार दान देना बड़े सौभाग्य की बात है। जिस प्रकार द्वीपमें जानेवाले जहाजमें अनेक प्रकारकी सामग्री भरकर भेजी जाती है, उसी प्रकार मोक्ष जानेवाले मुनियोंके करतलपर अन्नको रखकर भेजना प्रत्येक श्रावकका कर्तव्य है।
आत्मा और शरीरको भिन समझकर ध्यान करनेवाले योगीको अपने हाथसे आहार देनेका सौभाग्य क्या प्रत्येक व्यक्तिको प्राप्त होता है ?
रत्नत्रयके धारक, परमवीतरागी, तपस्वी आत्मामृतको तो आत्माको अर्पण करते हैं एवं भव्यात्मोंके द्वारा दिए हुए अन्नको शरीरको देते हैं । ऐसे योगियोंको आहार देनेवाला गृहस्थ क्या धन्य नहीं है ?
चिद्गुणान्नको आत्माके लिये व पुद्गलानको पौद्गलिक शरीरके लिये देनेवाले सद्गुरुओंको आहारदान दे, तो इससे सद्गति होनेमें क्या कोई सन्देह है? ब्रह्मनाम आत्माका है। उस ब्रह्मसे उत्पन्न अन्नको ब्राह्मणान्न कहते हैं। परपदार्थोसे उत्पन्न अन्नको शूद्रान्न कहते हैं।
सुक्षेत्रमें बोया हुआ बीज व्यर्थ नहीं जाता है। उसमें अंकुरोत्पादन होकर फल आदि अवश्य उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार मोक्षगामीके हाथमें दिया हुआ आहार व्यर्थ नहीं जाता है। उसका इहलोकमें ही प्रत्यक्ष फल मिलता है।