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________________ भरतेश वैभव मार्ग तयकर भरत महाराज राजमहलके बहिर्भागमें आकर खड़े हो गये। ___ उनने पूजनसामग्री व अलकलशको नीचे रख दिया है। अब वे साधूओंकी प्रतीक्षा बहत उत्सुकताके साथ कर रहे हैं। उस समय उनकी शोभा अपार थी । प्रतीत होता था कि कहीं अयोध्या नगरकी शोभा देखनेके लिये स्वयं देवेंद्र ही कहीं आकर तो नहीं खड़ा हुआ है। भरतेश्वर बड़ी चिन्तामें निमग्न हैं। उनके मनमें यह चिन्ता लग रही है कि मैं इस संसारसमुद्रको पारकर कब मुक्ति पाऊँगा ? उस राजमहल उधरसे तीन बड़े उड़े मार्ग तीन दिप में गये हुए थे । भरत महाराज उन तीनों मार्गोंकी तरफ पुनः देखकर शांत भावसे मुनियोंकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिस प्रकार कुमुदिनी चन्द्रमाकी प्रतीक्षा करती है उसी प्रकार महाराज भरत मनियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कभी तो चर्मचक्षुसे मार्ग की ओर देख रहे हैं तो कभी ज्ञानदृष्टिसे शरीरस्थित आत्माका निरीक्षण कर रहे हैं। भीतर आत्माकी और बाहरसे मुनियोंके मार्गको देखते समय उनके कार्य में तनिक भी प्रमाद नहीं हो रहा है। चारों ओरसे स्तब्धता छाई हुई है। राजमहलसे लेकर बाहर तक कोई हल्ला नहीं है, क्योंकि सब कोई जानते थे कि यह भरत चक्रवर्ती के मुनिदानका समय है। कुछ सेवक आसपासमें छिपकर दान विधिको देखनेके लिए बैठे हैं। भरत उनको नहीं देख रहे हैं। संभवतः अपनी चर्यासे वे यह बात बतला रहे हैं कि यद्यपि सब लोक मुझे देख रहे हैं तो भी मैं उनसे अलिप्त हूँ। इसलिए ही तो वे एकाकी खड़े हैं। उस समय भरत इस प्रकार प्रतीत होते थे मानों कोई आत्मविज्ञानी पंचेन्द्रियोंसे युक्त होनेपर भी उनसे अलिप्त है । उस समय उनके चित्तमें निर्मल योगियोंको दान देनेके, सिवाय भोजन आदि करनेकी कोई चिन्ता नहीं है। उस दिन उस नगरीमें चर्याके लिए बहुतसे योगिराज आये थे, परन्तु रास्तेमें ही बहुतसे धाबकोंने उनका प्रतिग्रहण कर लिया इसलिये राज-प्रासादतक कोई नहीं पहुंच सके। अब तो भरत चक्रवर्ती बड़ी चिन्तामें मग्न हैं कभी दाहिनी ओर कभी बायी ओर देखते हैं । परन्तु किसी जिन रूपधारीको न देख फिर चिन्तामग्न हो जाते हैं।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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