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भरतेश वैभव
मुनिमुक्तिसंधि सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप अपार है। लोकके भव्योंको अजरामर पद देनेवाले, स्वभावावस्थाको प्राप्त हुए, मोहनीय कर्मको वशमें किए हए प्रसिद्ध आत्मा सिद्धालयमें विराजमान हैं। ऐसी विशुद्ध आत्मासे सब लोग प्रार्थना करें कि वे हम सबको सुबुद्धि देवें ।
भरत चक्रवर्तीके हृदयकी बात जिनेंद्र भगवान ही जानें । मुनियोंकी चर्याका समय जानकर वे राजमहलके द्वारकी ओर चले।
सभाभवनसे आकर उनने शरीरके समस्त राजचिह्नोंको उतार लिया। राज्यशासनके योग्य वस्त्राभूषणोंको यद्यपि उनने उतार लिया तो क्या उनकीसुंदरतामें कोई कमी हुई ? नहीं । शारीरिक श्रुगारसे रहित होकर वे द्वार प्रतीक्षाके लिये चले। छत्र, चामर, खड्ग, पादरक्षा आदि राजचिह्नोंकी अब उनको आवश्यकता न थी। अब तो सम्राट भरत पात्रदानकी अपेक्षा करनेवाले एक सामान्य श्रावकके समान हैं।
पात्रदानकी प्रतीक्षाके लिए जाते समय उनके बायें हाथ में अक्षत, पुष्प आदि मंगल द्रव्य व दाहिने हाथ जलका कलश था। उनकी कड़ी आज्ञा थी कि मेरे साथ कोई भी नहीं आवे और न कोई मुझे मार्गमें नमस्कार ही करें। निधिको अपेक्षा रखनेवाला कोई व्यक्ति जिस प्रकार उस निधिकी पूजाकर पश्चात् उसे लानेके लिये जाता है, उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती भी तपोनिधियोंको लानेके लिए जा रहे हैं। राजाके सामने सेवकको, गुरुके समक्ष राजाको किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये यह बात राजनीतिज्ञ भरत अच्छी तरह जानते थे ।
दान देना, पूजा करना ये गृहस्थोंके कर्तव्य हैं । यह कार्य परहस्तसे होना इत्रित नहीं है, ऐसा समझकर सम्राट् स्वयं ही उस कार्य के लिये जा रहे थे।
जिस समय वे आगे जा रहे थे, उस समय उनका अनुगमन करनेवाले लोगों को पीछे रोक दिया गया था। फिर भी भरत महाराजके शरीरके सुगंधसे मुग्ध हुए भ्रमर उनके पीछेपीछे झुण्डके झुण्ड आने लगे। भरतने उनको भी बहुत कहा कि मेरे माथ चलनेकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु फिर भी वे भ्रमर नहीं रुके । ठीक ही बात तो है। मनुष्योंके कान हैं अतः उन लोगोंने मेरी आजा सुन ली, परन्तु इन भ्रमरोंके कान नहीं हैं। ये चतुरिद्रिय प्राणी हैं, इसलिए इनको रोकनेसे कुछ प्रयोजन नहीं है, ऐसा समझकर वे चुपचाप चले । अन्तमें किसी प्रकार