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भरतेश वैभव
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व वस्त्र उसे दिये । इतना ही नहीं, बहुतसे ग्रामोंकी जागीर देकर उसकी दरिद्रताको दूर किया। फिर चक्रवर्ती कुछ हँसकर कहने लगे तुमने बहुत सुंदर बात कही, जो तुमने अन्दर देखा है वही बाहर कहा है । बहुत देरतक कहते-कहते तुम थक गये होंगे। अतः अब जरा बैठ जाओ । इस प्रकार कहकर उसे उसके स्थान में जानेको कहा ।
तब वह दिविजकलाधर हर्षित हो कहने लगा राजन् ! यह जैनागम है, क्या यह कथन करनेके लिये सरल है ? भला में क्या चीज हूँ ? आपके आस्थान विद्वान् ही इस विषयको जान सकते हैं। यह सर्व आपकी ही कृपाका फल है। इसमें हमारा कुछ भी नहीं है। आपके ही प्रसादसे प्राप्त अमुल्यरत्नोंको आपकी ही सेवामें अर्पण किये हैं । इसमें मैंने क्या बड़ी बात की है ? यह कहकर वह वहाँसे सानंद
चला गया।
सभा में उपस्थित लोग भी विचार करने लगे चक्रवर्तीके अंतरंगको कोई नहीं पहिचानते । परंतु इस विद्वान् कविने उसे जानकर वर्णन किया है। सचमुत्रमें यह बहुत बुद्धिमान् व दूरदर्शी विद्वान् है इत्यादि प्रकारसे लोग उस कविकी प्रशंसा करने लगे । कविके ज्ञानपर राजा हर्षित व राजाकी उदारता देखकर सब प्रजाजन जब प्रसन्न हो रहे थे तब भोंभों करता हुआ शंखका शब्द सुननेमें आया। उसी समय सबने विचार किया कि अब चक्रवर्तीके भोजनका समय हुआ है, ऐसा निश्चयकर सब लोग राजाको नमस्कार कर वहाँस उठे । उस समय दण्डधारी लोग यथोचित सन्मानपूर्ण शब्दोंके साथ सब लोगोंको वहाँसे विदा कर रहे थे
राजसभा विसर्जित हुई। महाराज भरत भी 'जिनशरण' शब्द कहते हुए बहाँसे उठे । उस समय चारों ओरसे जयजयकार शब्द सुननेमें आ रहा था । करते हैं, उसी प्रकार
महाराज भरत जिस प्रकार प्रजाका पालन रत्नत्रय धर्मपालक साधुओंकी सेवा करनेमें भी वे दत्तचित्त रहते हैं । प्रतिनित्य साधुओंको आहार दिये बिना मैं भोजन नहीं करूँगा ऐसी उनकी कठिन प्रतिज्ञा है। इसलिये राजसभासे बाहर आकर वे मुनियों को पढगान ( प्रतिग्रहण) करनेके लिये तैयारी करने लगे। बीच-बीच में उन्हें दरबारकी बात याद आ रही थी । कविने मेरे हृदयकी बात जान ली थी, इस बातको बारंबार स्मरण कर वे मन ही मन आनंदित हो रहे थे । अनंतर सम्राट् मुनियोंकी मार्गप्रतीक्षा करनेके लिए तैयार हुए। इति कविवाय संधि
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