SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ भरतेश वैभव अपने स्वामीको नमस्कार करानेको सोचते हो। क्या । मैं इतने छोटे हृदयका हूँ ? गुग्गको मैं नमस्कार कर सकता हूँ । परन्तु बड़े भाईके नाते अहंकारसे बुलावें तो क्या मैं नमस्कार कर सकता हूँ । देखो तो सही ! तुमको भेजकर बातें बनाकर मुझे ले जाना चाहता है। मेरे भोले जो छोटे भाई थे वे पत्र पाते ही तपश्चर्या करनेके लिए भाग गये। मुझसे वे यदि मिलते तो मैं फिर बड़े कार्यको करके बतलाता । पिताजी के द्वारा दिये हुए राज्योंमें बने रहने के लिए मेरे सहोदरोंको बड़े भाई बोलता है, साथ में उन्हें अपनी आधीनताको स्वीकार करनेके लिए भी कहता है। शाबास भाई शाबास! उत्तमरानीकं पुत्रको एक सामान्य व्यक्तिकी दृष्टिसे देख रहा है । इसलिए मुझे जबर्दस्तीसे बुला रहा है, सचमुच में भाग्यशाली भाई है। मेरे पिताजीको मेरी माँ च बड़ी मां दोनों ही रानियाँ थीं। कोई दासी नहीं थीं । परन्तु मुझे नौकर-चाकरोंके पुत्रोंके समान बुला रहा है । दक्षिण – स्वामिन् ! जब मैं यहाँ आया था, सम्राट्के मंत्री मित्रोंने आपकी सेवामें अनेक प्रकारकी भेंट भेजी थी। फिर आप ऐसी बात क्यों करते हैं ? राजन् ! मैं बोलनेके लिए डरता हूँ । हमारे स्वामी अपने मंत्रीमंत्रोंको सामान्य व्यक्तियोंके पास नहीं भेजा करते हैं । हमारे छोटे स्वामीके पास भेजा है, इसलिए आया । बाहुबलि — ठीक ! इसलिए तुम लोगोंने मुझे फँसाकर ले जाना वाहा, परन्तु यह कामदेव तुम्हारी बातों में आकर तुम्हारे स्वामीको नमस्कार नहीं कर सकता । अनेक प्रकारके पत्रोंको भेजकर छोटे भाइयोंको जंगलमें तपश्चर्या के लिए भेजा। परन्तु मुझे देखकर अपने मित्रको मेरे पास मुझे फँसानेके लिए भेजा, मैं अच्छी तरह जानता हूँ । हाय ! झूठे विनयको दिखाकर मुझे डराते हुए फँसानेके व्यवहार को देखकर क्या मेरा हृदय गरम नहीं होगा ? शीतल चंदनवृक्षको भी वर्षण करनेपर उससे अग्नि नहीं निकलेगी ? अवश्य निकलेगी । दक्षिण ! क्षणभर में जब तुम अपने स्वामीकी तारीफ ही कर रहे हो, उसे देखकर मेरे हृदयमें क्रोध बढ़ता जा रहा है, कोपारित प्रज्ज्वलित हो रही है । व्यर्थ ही मेरे क्रोधका उद्रेक मत करो। बस ! यहाँस चले जाओ। दक्षिणांककी आंखों में आँसू भर गया । उसने फिरसे नमस्कार कर कहा कि स्वामिन्! क्षमा करो, व्यर्थ ही मैंने तुम्हारे मनको दुखाया, मैं अतिक्रूर हूँ । हम लोग दोनों स्वामियोंको एकत्र देखनेकी इच्छा करते थे । हम लोग अतिपापी हैं । पापियोंकी इच्छायें कभी
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy