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________________ २८० भरतेश वैभव भरतेश्वरके बीरयोग में थोड़ीसी बाधा उपस्थित होनेपर भी उनकी आत्मामें अधीरताका संचार नहीं हुआ है। वे अपनी आत्मामें अविचल होकर वस्तुस्थितिको देखते हैं । वे विचार करते हैं कि हे परमात्मन् ! तुम अखिल वीरानुयोगको देखते हो, परंतु उससे तुम भिन्न हो, निर्मलस्वरूप हो, मोक्ष जाने तक दृष्टि ब मन भरकर मैं तुमको देख ल। तुम मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना। यही हार्दिक इच्छा है । हे सिद्धात्मन् ! तुम्हें न माता है, न पिता है, न कोई भाई हैं, न बंधु हैं । आदि भी नहीं हैं, अंत भी नहीं है, कोई भी कष्ट तुम्हें नहीं है, जन्म भी नहीं, मरण भी नहीं है। हे निरध ! निर्माय ! निरंजनसिद्ध ! सन्मति प्रदान कीजिए। इति कामदेवास्थानसंधि. -:: अथ संधानभंगन्धि बाहुबलिके मन्त्री व मित्रों को अपने आनेके कारणको कहकर एवं उनके अपने अनुकूल बनकर दक्षिणांक बाहुबलिसे बोलनेके लिए दरबारमें पहुँचा । बाहुबलिने दक्षिणांकको देखकर प्रश्न किया कि दक्षिण! तुम किस कार्यमे आये हो ? बोलो । उत्तरमें हाथ जोड़कर दक्षिणांकने बड़ी नम्रताके साथ निम्नलिखित प्रकार निवेदन किया। ___"स्वामिन् ! बड़े स्वामीके अनुज ! मेरे छोटे स्वामी ! सौंदर्यशालिन ! मेरे निवेदनको कृपया सुनें। सम्राटको जब समस्त पृथ्वी साध्य हुई, तब मार्गमें उन्होंने श्रीपिताजीका दर्शन किया। तदनंतर भाग्यसे माताका भी दर्शन हुआ, फिर उनको अपने छोटे भाईको देखनेकी इच्छा हुई । हमसे उन्होंने गुप्तरूपसे पूछा था कि मेरे भाईको देखनेका क्या उपाय है ? तब हम लोगोंने कहा कि राजन् ! जैसे तुम्हारे मनमें छोटे भाईको देखने की इच्छा हुई है, उसी प्रकार तुम्हारे छोटे भाईके मनमें भी तुम्हें देखने की इच्छा हुई होगी। तब सम्राट्ने कहा उसको सुखसे रहने दो। वह सुखसे पला है, पिताजीने भी उसे बहुत प्रेमसे पाला-पोसा है । मेरी काकीका बह एकाकी बेटा है। इसलिए उसे कष्ट क्यों देना ? सूखसे रहने दो ! अपन जब अयोध्यापूरमें पहुचेंगे तब माताजी काकी को बुलवायेंगे तब बाहुबलि भी आ जायेगा। तभी काकी को व उसे देख लेंगे । तब हम लोगोंने उनसे प्रार्थना की कि
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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