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भरतेश वैभव
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परन्तु आप लोग हमें निर्भाग्य कर चले जाते हो यह मात्र आश्चर्यकी बात है। "पुत्रसंतान होना चाहिए" इस प्रकार तुम्हारी माताओंकी अभिलाषा है। उसकी पूर्ति तुम्हारे जन्म से हो जाती है । परन्तु तुम लोग बड़े होकर दीक्षा लेकर भाग जाते हो, हम लोगोंकी रक्षा बुढ़ापेमें तुम करोगे, इस विचारसे अच्छे-अच्छे पदार्थोको खिला-पिलाकर हम तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं । परन्तु तुम लोग बिल्कुल उसके प्रति ध्यान नहीं देते हो । लच्चे हो । कदाचित हमसे कहने से हम जाने नहीं देंगे इस विचारमें बिना कहे ही तपश्चर्याके लिए निकल जाते हो । परन्तु ऐसा न कहकर जानेसे बाल्यकालसे पालन किया हुआ ऋण तुमसे कैसे छूट सकता है । देखो, मेरे पिताजीने मुझे राज्य में स्थापित कर जो काम मुझे सौंपा है उसे में कर रहा हूँ। मैंने अपनी माताके स्तनके दूधको पीया है, अतएव उनकी आज्ञानुसार सर्व कार्य करता हूँ। किसीका कर्जा लेकर उसे बाकी रखना यह महापाप है। माता-पिताओंके ऋणको बाकी रखकर जाना यह सत्पुत्रोंका कर्तव्य नहीं है। उसको तो मुक्ति भी नहीं मिल सकती है । तुम्हारे भाई और तुम इस बातपर विचार नहीं करते। तुम्हारी मातुश्री व हमको दुःखमें डालकर जाना चाहते हो । परन्तु क्या अपनी लिए उचित है ! इस प्रकार पुत्रोंको भरतेशने अच्छी तरह डराया ।
भरतेश यद्यपि जानते थे, सर्वज्ञने यह आदेश दिया है कि दो पुत्रों को छोड़कर बाकी पुत्र तो भोगोंको भोगकर वृद्धावस्था में ही दीक्षित होंगे तथापि विनोदके लिये हो उपर्युक्त प्रकार संभाषण किया । पुनः वे दोनों पुत्र कहने लगे कि पिताजी ! हमारे भाई दीक्षाके लिये जाना चाहते थे । आपसे आज्ञा उन्होंने जानेके लिये माँगी, परन्तु आपने आज्ञा नहीं दी, वे रह गये। फिर आपने उसी प्रकार उन छह भाइयोंको नहीं जाने देते तो ये रह जाते । भरतेश्वर उत्तरमें कहने लगे कि बेटा ! जब मेरे खास पुत्रोंका रोकनेके लिये मुझे इतना साहस व श्रम करना पड़ा, तब उन भाइयोंको रोकनेके लिये क्या करना पड़ता ? मेरी बात को वे कैसे मान सकते थे ?
पुनः चे पुत्र कहने लगे कि पिताजी ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? क्या आज हम लोग छोटे भैया आदिराज व बड़े भैया अर्क कीर्तिके वचनका उल्लंघन करते हैं ? नहीं, हम तो उनके वचनको शिरसा धारण करते हैं । इसी प्रकार वे भी आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करते । परन्तु मालूम होता है कि आपने ही इस प्रकार प्रयत्न नहीं