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भरतेश वैभव किया। भरतेश्वरने अर्ककी तिकी ओर लक्ष्यकर कहा कि देखो बड़े भैया ! अपने भाइयोंकी बात तो सुनो, ये किस प्रकार बोल रहे है। तब अर्ककीर्ति कहने लगा कि पिताजी ! वे ठीक बोल रहे हैं, शायद आपने अपने भाइयोंको रोकने का प्रयत्न किसी कारणसे उस दिन नहीं किया होगा।
भरतेश्वरने उत्तरमें अर्ककीतिसे कहा कि बेटा ! तुमने भी, तुम्हारे भाइयोंने जो उसे ही समर्थन क्रिया ! क्या उस दिन मैंने अपने भाइयोंको रोका नहीं होगा ! परन्तु यह बात नहीं है। बेटा ! आज तुम्हारे जितने भी सहोदर हैं वे तुम्हें देखते ही मेरे समान ही विनय करते हैं। मेरे भाइयोंकी वह दशा नहीं है क्योंकि तुम्हारे सदृश पुण्य को मैंने नहीं पाया है। ...अर्ककी ति–परमात्मन् ! यह आपने क्या कहा ! आप ही लोकमें पुण्यशाली हैं । मैं अधिक पुण्यशाली कैसे हो सकता हूँ। __ भरतेश --लोकमें भले ही मुझे बड़ा कहें, पुण्यशाली कहें, परन्तु सहोदरोंकी भक्ति पानेमें तुम लोकमें सबसे बड़े हो। देखो तो सही, तुम्हारे भाइयोंको यह भी ख्याल नहीं है कि हम सब सौतेली माँ के पुत्र हैं । सबके सब प्रेमसे तुम्हारे साथ रहते हैं। परन्तु एकगर्भज होनेपर भी मेरे भाई तो मेरे साथ नहीं रहते । एक हजार दो सौ भाई तुम्हारी आशाको शिरोधार्य करके तुम्हारे साथ रहते हैं। परन्तु मेरे तो सौ भाई होनेपर भी मेरे साथ प्रेमसे बर्ताव नहीं करते। मैं तो उनकी हितकामना ही करता हूँ। परन्तु मेरे साथ उनको भलाईका व्यवहार नहीं है। तथापि मैं उस ओर उपेक्षा करके चलता हूँ। जिन छह भाइयोंने दीक्षा ली वे तो अत्यन्त विनयी थे और मुझपर उनकी अतिशय भक्ति थी। मैंने उनको अनेक प्रकारसे रोकने के लिये प्रयत्न किया। परन्तु मुझे स्वपरोपकारकी अनेक बातें कहकर वे आदिप्रभुके साथ दीक्षित हो ही गये । क्या करें। उनको नमोस्तु अर्पण करता हूँ परन्तु अब वाकी जो रहे हए भाई हैं उनके अंतरंगका क्या वर्णन करूं? वे महागीं हैं 1 मेरे अनकल रहना नहीं चाहते हैं। इन बातोंको बाहर कभी नहीं बोलना। आप लोग मनमें ही रखकर समझ लेना। इत्यादि अनेक प्रकारसे बच्चों को समझाया ।
उत्तरमें अर्ककीर्ति कहने लगा कि अरहंत ! क्या आपके और काकाओंके मनमें अनुकूल वृत्ति नहीं है यह बड़े दुःखकी बात है। इत्यादि प्रकारसे वार्तालाप करते हुए सेनाकी ओर आ रहे थे। सेनास्थान अब बिलकुल पासमें है। सेनामें सभी सम्राटकी प्रतीक्षा कर रहे