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भरतेश वैभव
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मनमें कुछ सोचा । इतने में दिव्यध्वनिका उदय हुआ । गम्भीर, मृदु, मधुरध्वनि से युक्त सबके चित्त व कर्णको आनन्दित करती हुई वह दिव्यवाणी खिर रही है। समुद्रघोष के ममान उसकी घोषणा है । उस दिव्यध्वनि में १८ प्रकारकी महाभाषाये व ७०० लघुभाषायें अंतर्भूत हैं।
सबसे पहिले इस लोकाकाशमें व्याप्त तीन वातवलयोंका वर्णन उस दिव्यध्वनि में हुआ। बादमें उस आकाश प्रदेशमें स्थित ऊर्ध्वं मध्य व अधोलोकका चित्रण हुआ। तदनंतर उस लोकमें स्थित षद्रव्य, सप्ततत्व, पंचास्तिकाय व नवपदार्थो का वर्णन हुआ। भरतेश्वरको बड़ा ही आनंद हो रहा था। इसी प्रकार जब भगवंतने व्यवहार रत्नत्रय, निश्चयरत्नत्रय, भेदभक्ति, अभेदभक्तिका वर्णन किया उस समय भरतेश्वरको रोमांच हुआ। हंसत्व परमात्मतत्व ), हंसतत्वका सामर्थ्य { व हंसमें ही जिनसिद्धकी स्थितिको जिस समय भरतेश्वरने सुना उस समय वे आनंदसे फूले न समाये, उनके सारे शरीरमें रोमांच हुआ
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भरतेश्वरने स्वतः को कब केवलज्ञान होगा यह पहले ही आदिभगवंत से पूछ लिया था । परन्तु उनकी इच्छा अबकी अपने पुत्रोंके संबंध में पूछने की थी । सो उन्होंने प्रश्न कर ही दिया। हे भगवन् ! ये हमारे एक हजार दो सौ पुत्र हैं, इसी जन्म में मुक्त होंगे या भावी जन्ममें मुक्त होंगे ? कृपया कहियेगा । तब उत्तर मिला कि ये सब इसी भवसे मुक्तिधामको प्राप्त करेंगे । भरतेशको संतोष हुआ । साथमें यह भी कहा कि इनमें से दो पुत्रोंको तो बाल्यकालमें ही वैराग्य उत्पन्न हो जायगा । परन्तु समझानेके बाद वे रह जायेंगे और फिर भोगोंको भोगकर वृद्धावस्थामें वे दीक्षित होंगे। भरतेश्वरने निश्चय किया कि इस जिनवाक्यमें कोई अन्तर नहीं पड़ेगा । मैं इन पुत्रों के साथ वृद्धाप्य कालतक राज्यभोगको भोगकर दीक्षित होऊँगा । भगवान्को नमस्कार कर उठा । उनके पुत्र भी साथमें ही उठे, वे आपस में बातचीत कर रहे थे कि ये भगवंत हमारे दादा हैं, कोई कह रहे थे कि प्रपिता हैं । इस प्रकार मोहसे कई तरहसे बात कर रहे थे । जहाँ मोह है वहाँ ऐसी बात हुआ करती है । जिस भगवंत समस्त मोहनीयका अभाव हो चुका है, उनके हृदय में ऐसी कोई भी बात नहीं है। इसलिए इनके हृदयमें मोह रहनेपर भी उनके हृदयमें कोई ममत्व नहीं है । अतएव ये वीतरागी कहलाते हैं ।
वृषभसेन गणधरने सम्राट्से कहा कि भरतेश ! सबको रास्तेमें छोड़कर आए हो ! इसलिये अब देरी मत करो! चले जाओ। भर२३