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भरतेश वैभव विराजमान हुए । आज समवसरण में एक नई बात हो गई है। समयसरणस्थित सभी भव्य भरतेश्वरके आगमनसे हर्षित हो रहे हैं। भरतेश्वर दिव्यवाणीकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ___ भरतेशका जीवन धन्य है । जहाँ जाते हैं वहाँ परममंगल प्रसंगोंका ही अनुभव उनको होता है। दिग्विजय कर लौटते समय भगवान् त्रिलोकीनाथका दर्शन, यह कोई कम भाग्यकी बात नहीं है। ऐसे पुण्यशाली विरले ही होते हैं। जिन्होंने पूर्वजन्मसे ही आत्मभाबनाके साथ अनेक पुण्यकार्योको किये हों उन्हींको इस प्रकारके अवसर मिला करते हैं। भरतेश्वर उन्हीं महात्मा मोमें से हैं, जो रात दिन इस प्रकारकी भावना करते हैं कि
'हे परमात्मन् ! तुम्हारे अंदर बह सामर्थ्य है कि तुम अपने भक्तोंको सदा परममंगल स्थानोंमें ले जाते हो। इसलिए हे आनन्दमल्ल ! चिदम्बरपुरुष ! तुम मेरे हृदयमें ही रहो! कभी अन्यत्र नही जाना, यही मेरी प्रार्थना है।
"हे सिद्धात्मन् ! गर्वगजासुरको आप मर्दन करनेवाले हो, दुष्कर्मरूपी पर्वतके लिए वनके समान हो, नरसुर नाग आदियों के द्वारा वैद्य हो, अतएव हमें निर्विघ्नमतिको प्रदान कीजिए"। इसी भावनाका यह फल है।
इति जिनदर्शन संधि.
अथ तीर्थागमन संधि भरतेश्वर हाथ जोड़कर बैठे हैं। उनको दिव्यध्वनि कब खिरेगी इस बातकी उत्कंठा लगी हुई है। भरतके पुत्र भी भगवंतके प्रति भक्तिंस दखत हैं। संत हैं। हाथ जोड़त है। अकीति अपन छांट भाई पुरुराज, माणिक्यराज, वृषभराज, गुरुराज व आदिराजसे कहने लगा कि आप लोग बड़े भाग्यशाली हो । क्योंकि आप लोगोंने भगवान् आदिप्रभके नामको पाये हैं। उत्तर में वे भाई कहने लगे कि भाई ! ऐसा क्यों कहते हो ? दुनियामें जितने भी पवित्रनाम हैं वे सब श्री आदिप्रभुके हैं। उनमेंसे आपका अर्ककीर्ति नाम भी तो है। इत्यादि प्रफारसे वार्तालाप हो रहा था । इतनेमें भरतेश्वरने उनको इस विनोदगोष्ठीको बन्द करनेके लिए इशारा किया। उन्होंने हाथ जोड़कर