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________________ १३३ भरतेश वैभव भाईका हृदय कैसा है मैं जानता हूँ। इसलिए आप लोग संतुष्ट रहें। आज रहने दो। रात्रि हो गई, पूर्णिमा होनेके कारण शुभ्र चाँदनी फैल रही है। उस समय नरलोक ज्योतिलोकके समान मालम हो रहा है। सेनास्थानमें विवाह समारम्भकी तैयारियां हो रही हैं । सेनाके प्रत्येक अंगका शृङ्गार किया गया है। हाथी, घोड़े आदि भी सजाये गये हैं। सर्वत्र आनंद ही आनंद हो रहा है। एक तरफ इस खुशीमें विद्याधरी देवियाँ आकाशमें नृत्य कर रही थीं तो दूसरी तरफ भूचरी देवियाँ भूमिपर नृत्य कर रही थीं । करोड़ों प्रकारके वाद्य बज रहे थे । सुभद्राकुमारीको अनेक देवियोंने मिलकर विवाहोचित शृङ्गारसे शृङ्गारित किया । भरतेश्वर भी देवेन्द्रके अनेक उत्तमोत्तम वस्त्राभारणोंसे अलंकृत हुए । सर्वत्र उनकी जयजयकार हो रही है। भरतेश्वरका पुण्य अन्यासदृश है। उनको हर समय आनन्द व मंगलके प्रसंग आया करते हैं । वे संसारमें भी सुखका अनुभव करते हैं। उनकी सेवामें रहनेवाले सेवकोंको भी जब दुःख नहीं है तो फिर उनको स्वयंको दुःख किस बातका हो सकता है। जिस प्रकार दीपक दूसरोंको भी प्रकाश देता है व स्वयं भी प्रकाशित होता है उसी प्रकार भरतेश्वर स्वयं भी सुख भोगते हैं, दूसरोंको भी सुख देते है। वे परमात्मासे प्रार्थना करते हैं कि - "हे परमात्मन् ! तुम स्वयं सुखी हो एवं समस्त लोकको सुख प्रदान करते हो । क्योंकि तुम सुखस्वरूप हो । अतएव मेरे हृदयमें सदा बने रहो। हे सिद्धात्मन् ! भक्तिलक्ष्मीके साथ विवाह करनेके पहिले आप लोकको मृदु, मधुर व गंभीर धर्मामृत पानसे सन्तुष्ट करते हो। हितोक्तिके द्वारा संसारके समस्त प्राणियोंको तृप्त करते हो । अतएव हे परमविरक्त ! मुझे व्यक्तमतिको प्रदान करें। इसी भावनाका फल है कि वे सदा सुख भोगते हैं व दूसरोंको सुख देते हैं। इति विवाहसंभ्रम सन्धि
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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