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भरतेश वैभव तुम्हें देखनेके लिए मैंने अनेक तन्त्रोंसे प्रयत्न क्रिया, क्योंकि स्नेह पदार्थ ही ऐसा है । वह सब कुछ कराता है।
नमिराज--क्या आपके प्रति मेरा प्रेम नहीं है ? आपको देखनेकी मेरी इच्छा नहीं होती थी ? जरूर होती थी। परन्तु आपके भाग्यकी महिमाको सुनकर मैं डरता था कि मैं आपसे कैसे मिलू ? इसलिए मैं दर ही था। क्या इसे आप नहीं जानते हैं ? भावाजी । आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि लोकमें गरीब व्यक्ति श्रीमन्तोंको अपना बन्धु कहें तो लोग सब हंसते हैं। यदि श्रीमन्त गरीबको अपना बन्धु कहें तो उसकी शोभा होती है: बड़े भादमः शहे से बोले तो बस है, उसके लिए कोई बाधा नहीं है अतएव मैं पहाड़के ऊपर ही रहा । अब आपकी आज्ञा हुई, झट यहाँगर चला आया।
मरतेश्वर नमिराज ! तुम बोलनेमें बड़े चतुर हो, शाबास ! ( चक्रवर्ती हर्षके साथ उसकी ओर देखते रहे )
नमिराज--स्वामिन् ! बोलनेकी चतुराई आपमें है या मुझमें है, यह साथके राजाओं से ही पूछ लिया जाये। हाथ कंगनको आरसी की क्या जरूरत है?
इतनेमें मागधामरादि प्रमुख कहने लगे कि सचमुच में हमारे स्वामी बोलने-चालनेमें चतुर हैं । परन्तु वह स्वयं ही जब आपको चतुर कह रहा है तो आप भी चतुर हो इसमें कोई शक नहीं है।
भरतेहवर--नमिराज ! तुम मेरे मामाके पुत्र होनेके लिए सर्वथा योग्य हो, हजार बातोसे क्या है ? तुम राजा कहलानेके लिये सर्वथा समर्थ हो। मैं चक्ररत्नको प्राप्त कर पराक्रमसे जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। परन्तु तुम क्षात्राभिमानको कायम रखकर उसी तेजसे यहाँपर आये । तुम ही सचमुचमें विक्रमान्वयशुद्ध हो। किसी भी बातको छोड़ने में, पकड़ने में, लेने, देनेमें, शरीरसौंदर्यमें, बोलने-कालने आदि बातोंमें, क्षत्रियोंमें कोई विशेषता रहनी चाहिये । खाली-ओली व चालपर मैं प्रसन्न नहीं हो सकता, तुम्हारी वृत्तिने मेरे मस्तकको हुलाया। * इतनेमें नमिराजने अनेक उत्तमोत्तम वस्त्राभरणोंको सम्राटके सामने भेटमें स्का । भरतेश्वर पुनः कल्ने लगे कि जब मैं तुमसे प्रसन्न हुआ तो तुम मुझे मेंट क्यों दे रहे हो। मुझे सुमको देना चाहिये।
नमिराज कहने लगा कि तुम्हारे वचनोंसे मेरा हृदय पिघल गया। अतएव विनयके चिलके ममें इसको स्वीकार करना ही चाहिये ।