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भरतेश वैभव
३२५ क्षत्रिय कुलका अभिमान है । फिर भी उस प्रसन्नताको बाहर न बतलाकर कहने लगे कि मंत्री ! इस षट्खंडमें राजा मैं अकेला ही हूँ। तब क्या दूसरेको यह पद मिल सकता है? फिर मैं उसे राजाके नामसे कैसे बुला सकता हूँ जब वह मेरे सामने आकर नमस्कार करेगा, फिर उसे स्वामित्व कहाँ रहा ? ऐसी अवस्थामें मैं राजा कैसे कह सकता हूँ। भवन प्रार्थना को क आपको पदरानाके बड़े भाईक लिये यह सन्मान देना चाहिये ! तव भरतेश्वरने कहा कि यद्यपि यह मान देना ठीक नहीं है। तथापि आप लोगोंकी बातको मानना भी मेरा कर्तव्य है। मैं उसे स्वीकार करता है।
इतनेमें भंडारवतीने औकर सम्राट्को नमस्कार किया व कर्ने लगी कि स्वामिन् ! मैं सुभद्रादेवीको देखकर आ गई हूँ, सचमुच में उसका सौंदर्य अप्रतिम है अब तो उसे देखकर आप षट्खंड राज्यको भी भूल जायेंगे । उसके प्रत्येक अवयवमें वह रूप भरा हुआ है जो अन्यत्र देखनेके लिये मिल नहीं सकता। वह अपने सौंदर्यसे स्वागय तरुणियोंको भी तिरस्कृत करती है। पुरुषोंमें आप व स्त्रियों में वह एक सौंदर्यका भांडार है। इत्यादि प्रकारसे उसके रूपकी प्रशंसा कर जाने लगी। भरतेश्वरने उसे खाली हाथ न जाने देकर अनेक उपहारोंको साथ भेजा। इस प्रकार वह रात्रि भी आनंदके साथ व्यतीत हई। दूसरे दिन प्रातःकालकी बात है। भरतेश्वर दरबार लगाकर बैठे हुए हैं । इतने में आकाश प्रदेशमें अनेक विमान आते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह कोई और नहीं था। नमिराज अनेक राजा व परिवारको साथमें लेकर विवाह की तैयारीसे आ रहा है। यहाँसे गये हुए प्रायः षट्खंडके सभी राजा उसके साथ हैं। अपनी मातुश्री व बहिनको बिमानमें रखकर एवं अपनी स्त्रियोंको अपने पूरमें ही छोड़कर आया है। इसमें राजांग रहस्य है। उसे मालूम था कि भरतेश्वर मुझे अब सन्मानकी दृष्टिसे नहीं देखेंगे। अतएव उनकी स्त्रियाँ भी मेरी स्त्रियोंको हीनदृष्टिसे देखेंगी। इस विचारसे उसने अपनी स्त्रियोंको अपने नगरमें ही छोड़ दी। यदि बंधुओंको बराबरीकी दृष्टि से देखा तो उनसे मिलना ठीक है जो सेवकोंके समान बंधुओंको देखते हैं उनसे मिलना कदापि उचित नहीं है । आकाशप्रदेशमें आते हुए नमिराजने चक्रवर्तीके सेनास्थानके सौंदर्यको देखा । अनेक तोरणोंसे अलंकृत मंदिर, तरह-तरहकी शोभाओंसे शोभित ४८ कोस परिमाण सेनास्थान, रत्ननिर्मित महल, अन्यदुर्लभ सुगंधसामग्री आदियोंको देखकर नमिराज