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________________ भरतेश वैभव करना मानवीय शक्तिके बाहर था। महाराज भरतका चरित्र तीर्थकर प्रभके द्वारा भी प्रशंसित था। अनेक प्रकारके राजवैभवको भोगते हुए भी योगी कहलानेका अधिकार, गार्हस्थ्य जीवनमें ही आत्मानुभव करनेकी अद्भुत सामर्थ्य क्या किसीको सहज प्राप्त हो सकती है ? उसके लिए तो जन्मांतरमें कठिन तपश्चर्या करनी पड़ती है। जिस भरत की स्वर्ग में देवेंद्र भी प्रशंसा करते हैं, उनके विषयमें अन्यलोग स्तृति करें तो अतिशयोक्तिकी क्या बात है ?) हे राजन् ! आप जिनभक्ति, सिद्धभक्ति आदि कालोचित कार्यों में प्रमाद नहीं करते हैं। इन सबको करते हुए भी आत्मदर्शनमें आप भूल नहीं करते । शीलसे असंगत भोगमें आपको घृणा है। भोगमें भी आप सीलमे च्युत नहीं होते । भला आप सदृश राजाओंकी कौन नहीं स्तुति करेगा? यह स्वाभाविक बात है कि लोकमें मत्पात्र दानी, तत्वज्ञानी व आत्मानुभवी पुरुषका सज्जन लोग आश्रय करते हैं। जिस प्रकार भ्रमर जाकर कमलका आश्रय करते हैं। इसमें आश्चर्य ही क्या है ? महाराज ! जीर्णोद्धार कराना, जिनपूजा करना, पुण्यानुबंधिनी कथाओंको सुनना, जिनसंघकी सेवा करना आदि शुभकार्य आपकी मुख्य दिनचर्या है । इन सब बातोंको करते हुए भी प्रजाका पुत्रवत्पालन करने में कभी भी असावधान नहीं रहते हैं। फिर भला आपकी स्तुति कौन न करेगा ? जिनभक्ति, सिद्धभक्ति, गुरुभक्ति व शास्त्रसेवा आदि आपके स्वाभाविक कार्य हैं । पिताको देखकर जैसे पुत्र प्रफुल्लित होता है उसी प्रकार ममस्त प्रजा आपको देखकर मन्तृष्ट होती है । जो व्यक्ति जिनस्वरूप व सिद्धस्वरूपको सम्यकप्रकार विचार न कर ध्यान करता है उसको कोई लाभ नहीं होता। परन्तु जो जिन तथा सिद्ध स्वरूपमें अपने मनको लीन कर घ्यान करता हो उसे राजाकी प्रीति प्राप्त होती है । स्त्रीप्रेम, गजानुराग, पूजा प्रेमके लिये इससे अच्छा कौनसा मन्त्र है ? जिस समय आत्माके रूपका दर्शन होता है और साधक साक्षात अरहंतके रूपको धारण करता है, उस अवस्थामें उस व्यक्तिको व्यंतरवश्य, विद्यावश्य आदि करना क्या कोई कठिन कार्य है ? यह तो जाने दो, मुक्तिकांता भी सहजमें उसके वश हो जाती है।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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