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________________ भरतेश वैभव आपके हृदयमें भोग विलासके प्रति आसक्ति नहीं है, फिर भी लोग तुम्हें षट्खंड वैभवके भोगी समझते हैं । तुम योगी होकर बाह्य रूपमें कोई आत्मध्यान नहीं करते हो, फिर भी तुम अंतरंग में आत्मानुभव करते हो इसीलिए होगी । भोगों का योग मकर नुहिको प्राप्त करनेवाले तुम्हारे समान कितने हैं। विषयविषोंको खाकर भी उनके प्रभावको शून्य करनेमें तुम सर्वथा समर्थ हो । विषम चित्तको आत्मामें तुमने लगाया है। अतएव हे राजन् ! तुम राजर्षि हो । ___ महाराज ! जो आपका दर्शन करते हैं उनके पाप नाश होते हैं । तुम्हारा नामस्मरण करनेवालोंको पूण्यबन्ध प्राप्त होता है। मैंने आपकी स्तुति नहीं की है, आँखों देखी बात ही कही है। भरत महाराज की महिमा अपार है। उनके गुण गाये नहीं जा सकते। कवियोंने उनकी स्तुतिमें जो कहा है वह ऐसी कोई कला या शास्त्र नहीं है जिसका निर्णय भरत न कर सकें। इसी प्रकार उनके शरीरको 'आयुर्वेदो नु मूतिमान्' साक्षात् सजीव जीवनशास्त्र कहा है। उनका पुण्य भी अचिंत्य है। उनका यह सम्पूर्ण अनुभव जन्मसम्बन्धी अनुभव अथवा विज्ञान नहीं है। उनने अनेक भवोंमें उसका संचय किया था, अतः भवमें बे लोकोत्तर पुरुष हुए। राजन् ! प्रतिसमय उचित रूपसे जिन व सिद्धबंदना करनेको आप नहीं भूलते, इसलिये आपको आत्मयोग दिखता है । यद्यपि आप अतुल भोगको भोगते हैं, परन्तु वह शीलसंगत है, अतः आपकी स्तुति करना उचित है । जिस प्रकार भ्रमर कमलका आश्रय लेता है, उसी प्रकार सत्पात्र दानी, तत्वविज्ञानी व आत्मानुभवी सज्जन लोग आपका आश्रय करते हैं। इसमें कोई अनुचित बात नहीं है । राजन् ! देव, गुरु, धर्मका आप उत्कर्ष करनेवाले हो। जिन यज्ञ सम्बन्धी कथाको सुननेवाले हो। जिनसंघकी पूजामें तुम्हारी अनुपम भक्ति है । अपनी सन्तानके समान प्रजाकी रक्षा करते हो। फिर ऐसा कौन विवेकी मनुष्य इस संसारमें होगा जो तुम्हारा गुण वर्णन नहीं करेगा? ( यहाँ कवि सचमुच में राजा भरतको अतिशयोक्तिसे स्तुति करता है, यह बात नहीं है। भरतमें ऐसे-ऐसे अन्तर्भ गुण थे कि जिनका वर्णन
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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