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भरतेश वैभव
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स्त्रीकथा, रणकथा, वेश्याकथा आदिको सुनकर नरक जानेवाले राजा बहुत हैं। परंतु सत्कथाको सुनकर आत्मशुद्धि एवं मुक्तिको प्राप्त करनेवाले आप सरीखे कितने हैं ? अर्थात् दूसरे नहीं हैं।
__ मंदिरमें विद्यमान देवको न देखकर केवल मंदिरको देखनेवाले मुर्खके समान अंदरकी आत्माको न देखकर शरीरको ही आत्मा समझकर अपनी प्रशंसा करानेवाले बहुत हैं ।
महाराज ! तुम इन्द्रके समान हो, चंद्रके समान हो, ऐसी प्रशंसा करनेपर राजालोग बड़े प्रसन्न होते हैं। परंतु चक्रवर्ती भरतको ऐसी बातोंसे हर्ष नहीं होता। उनका विचार है कि इंद्रादिक बडे-बड़े संपत्तिधारी सब नष्ट होनेवाले हैं, केवल जिनेंद्रदेवकी संपत्ति ही अविनश्वर है । स्तुतिपाठक लोग राजाओंसे कहते हैं तुम्हारी कीति बहुत बड़ी है, तुम्हारी मूर्ति अत्यन्त कोमल हैं, तब वे नरेश प्रसन्न होकर उन स्तुतिपाठकों का उद्धार करते हैं । परन्तु भरतेश्वर कहते हैं कि शुद्ध निश्चयनयसे इस आत्माकी कोई मुर्ति ही नहीं; फिर इसे कोमलमूर्ति आदि कहना ठीक नहीं है।
कोई कोई राजाकी प्रशंसामें कहते हैं, तुम कल्पवृक्षके समान हो, कामधेनुके समान हो, चितामणि रत्नके समान हो। ऐसी प्रशंसा करने पर राजा लोग हर्षसे फूल जाते हैं और उस भक्तकी इच्छा पूर्ति करते हैं परन्तु महाराज भरत विचार करते हैं कि कल्पवृक्ष तो एकद्रिय वृक्ष है | क्या उसके समान मैं हूँ? कामधेनु तो एक गाय है। क्या मैं उसके समान पशु हँ ? चिंतामणि रत्न तो एक पाषाण है। क्या मैं भी पत्थर हूँ ? नहीं, नहीं, मैं तो चित्स्वरूप हूँ।
आत्मा अनुपम है । संसारमें उसकी तुलना करनेवाला कोई दूसरा पदार्थ ही नहीं है। ज्ञानको सूर्यकी उपमा देना ठीक नहीं, दर्पणकी उपमा देना भी ठीक नहीं है। सूर्यसे अन्धकारका नाश होता है, परंतु अज्ञानका नाश नहीं होता । दर्पणमें पदार्थाका प्रतिबिंब पड़ता है, वैसा प्रतिबिंब ज्ञानमें नहीं पड़ता है। इस कारण ज्ञान और आत्माका अनुपम स्वरूप है।
हे राजन् ! तुम मृत्यकलाको देखते हो, संगीतको सुनते हो, साहित्यके आनंदको भी लूटते हो, परन्तु उन सबमें आत्मकलाको बड़ी उत्सुकतासे ढूंढ़ते रहते हो । सबकी अपेक्षा यही विचित्रता आपमें है।
"आदिपुराणमें कल्पवृक्षको अचेतन पृथ्वीकाय कहा है।