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________________ भरतेश वैभव राजन् ! यह शरीर ही जिनेंद्रमन्दिर है। मन ही सिंहासन है । निर्मल आत्मा जिनेंद्रभगवान् है। बाहरके अन्य विकल्पोंको छोड़कर आँख मींचकर इस प्रकार देखें तो सचमुचमें जिनदेव अपने ही भीतर दर्शन देते हैं । जैसे कोई व्यक्ति किसी बातको भूलकर फिर सावधान हो पुनः उस ओर उपयोग लगा उस पदार्थ में चित्त स्थिर करता है, उसी प्रकार खोये हुए पदार्थको ढूंढने के समान एकाग्रतापूर्वक ज्ञान दर्शन ही मेरा निज रूप है, इस प्रकारकी चितना जब शरीरके अन्दर होती है तब इस आत्माका दर्शन होता है। जैसे कोई विद्यार्थी अभ्यास दिन ही पाठको म या अध्यापक नेपर वह बहुत दत्तचित्त होकर विचार करता हो, उसी प्रकार ज्ञान दर्शन ही मेरा रूप है, ऐसा समझकर एकाग्रता से यदि शरीर अंदर चित्त लगावे तो आत्माका दर्शन होता है २० 'हाँ' जिस प्रकार सुन्दर लाया मृतिका रूप है उसी प्रकार आत्माका भी निज रूप है, इस प्रकार स्मरण करते हुए आँख मींचकर आत्माको देखें तो अवश्य आत्मदर्शन होता है । प्राभृतशास्त्रोंको उत्तम प्रकार अध्ययन व मनन कर, शरीरस्य वायवोंको भृत्योंके समान वशमें कर जिस समय चित्तमें त्रिलोकीनाथ भगवान्का स्मरण करते हैं, उस समय आत्माका प्रत्यक्ष होता है । सूर्य चंद्र स्वरूप नामिकारंध्रको बंद करके प्राण व अपानवायुको जिस समय ब्रह्मरंध ( मस्तकपर) चढ़ाते हैं उस समय शरीर के भीतरका अन्धकार नष्ट होकर तेजःपुंज आत्माका दर्शन होता है। खेद है कोई-कोई पवनको वश करके आत्माको देखते हैं । कोई-कोई उसे वग न करके ही देखते हैं। कोई शरीरको हो आत्मा समझते हैं । कोई प्रयत्नकर एक ही दिनमें महमा इस आत्माका दर्शन करना चाहे तो वह उसे नहीं देख सकता है। यह कोई सरल बात नहीं है । जब से जटिल कर्म इससे दूर हट जाय तब कहीं यह आत्मा प्रत्यक्ष होता है । 1 क्या आत्मा बिजली की कोई मूर्ति तो नहीं है, चांदनी में बनाया हुआ चित्र तो नहीं है अथवा प्रकाशका पुतला तो नहीं है, इस प्रकार कल्पनाकर विचार करनेपर बहू दिखेगा I आत्मानुभवी यह अनुभव करता है मानों वह ज्योतिलॉकमें प्रवेश कर गया हो, अथवा शीतलज्योतिके बीचमें ही लड़ा हो। इस प्रकार
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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