SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव ३०१ अपनी अंकमालाको लिखनेके लिए स्थान न होनेसे दूसरे किसी के शासनको दण्डरलसे उड़ाकर उस स्थानपर लिखने के लिए भरते. श्वरने आज्ञा दी। आत्मतत्व विशिष्ट शासनोंकी प्रसन्नतासे उड़ाने के लिए सम्मति न देकर आत्मतत्वबाह्य शासनोंको ही रद्द करनेके लिए इशारा किया। इतने में उन शासनोंके रक्षक शासकदेवोंने प्रकट होकर चिल्लानेके लिए प्रारम्भ किया कि हम लोग पूर्व चक्रवतियोंके शासनोंको रद्द नहीं करने देगे । हम उनके रक्षक हैं इत्यादि । तब भरतेश्वरको क्रोध आया। मागधामर आदि व्यंतरोंको उन्होंने आज्ञा दी कि इन दुष्टोंको मारो, बहुत बड़बड़ करने लगे हैं। उनके मुखपर ही मारो, तब चुप रहेंगे । आज्ञा पाते ही व्यंतरोंने जाकर उन देवोंको खूब ठोंका। उनके दांत सबके सब पड़ गये । मागधंद्रने व्यंतरोंको आज्ञा दी कि इन सब दुष्टोंके हाथ बंधवाकर हिमवान् पर्वतके उस ओर फेंक दो । तब उनकी स्त्रियोंने आकर चक्रवर्तकि चरणों में साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना की कि स्वामिन् ! हमारे पतियोंने अविवेकसे जो कार्य किया है उसके लिए आप क्षमा करें और हमारे लिए हमारे पतियोंका संरक्षण करें। स्त्रियोंकी प्रार्थनासे सम्राट्ने मागधामरको उन्हें छोड़नेकी आज्ञा दी। मागधामरने उनको छोड़ दिया। वे लोग किसी तरह अपनी स्त्रियोंकी कृपासे जान बचाकर आनंदसे भाग गये। परन्तु टे हुए दांत फिरसे थोड़े ही आ सकते हैं ? विटनायक कहने लगा कि सामान्य लिपिके गर्वसे मार खाकर ये सेनावस्थामें अपमानित हुए । इतना ही नहीं, अपने दाँतोंको भी खोये । दक्षिणांकने कहा कि क्या सूर्यके सामने चंद्रमाका प्रकाश टिक सकता है ? हमारे सम्राट्के सामने इन पागलोंकी क्या कीमत है ? ठपर्थ ही इन्होंने कष्ट उठाया । वहाँपर उन शासनदेवोंके अधिपत्ति कृतमाल व नाटधमाल भी थे। उन्होंने चक्रवर्तीसे कहा कि स्वामिन् ! आप यदि इस प्रकार क्रोधित होते हैं तो आगे इन लिपियोंकी रक्षा कैसे होगी ? क्योंकि ये देव तो रक्षण नहीं करेंगे। तब चक्रवर्तीने कहा कि आत्मतत्वविशिष्टलिपिको अर्थात् जिन्होंने आत्मसाधन कर लिया है ऐसे चक्रवतियोंकी लिपिको रद्द करनेके लिए कोई भी समर्थ नहीं हो सकते । आत्मतत्वसे बहिर्भूत चक्रवतियोंकी लिपिपर अभिमान करने की आवश्यकता ही क्या है ? आप लोग देखें, मैं अब आत्मतत्वप्रधान लिपिको यहाँपर लिखवा देता हूँ उसे कौन नाश कर सकता है ? यह जनशासन है। इतर सब मिथ्याशासन है। जैनशासन अपने
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy