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________________ ३०० भरतेश वैभव तुम हो। इस प्रकार दोनोंसे मैं अपनी दोनों बहिनोंके स्थानकी पूर्ति कर चुका हूँ। जब भी अब मंगल प्रसंग उपस्थित होगा उस समय आप दोनोंको विना भूले बुलवाऊँगा । गंगादेवीको भी भरतेश्वरके वचनसे परम संतोष हुआ। साक्षात् तीर्थंकरकी पुत्री, षट्खंडाधिपतिकी सहोदरी कहलानेका भाग्य प्राप्त होनेरी रंगादेवीके शरीरमं एकदम रोमाच हुआ । भरतेश्वरने चितामणिरत्नको आज्ञा दी। उसी समय नवीन भवनमें भरकर उसने दिव्यवस्त्र आभूषणोंका निर्माण किया । बहिनका इस प्रकार सत्कार कर गंगादेव ( बहनोई) का भी सत्कार किया। सभी रानियोंने गंगादेवीको एक-एक हार दिया। गंगादेवीने उन रानियोंका सन्मान किया। इस प्रकार बहुत आनन्दके साथ उनसे विदाई लेकर सम्राट आगे बढ़े। इतने में पूर्व व पश्चिम खण्डसे दो दूतों ने आकर समाचार दिया कि वे दोनों खण्ड वशमें आ गये हैं। तब भरतेश्वरने विचार किया कि अब उत्तर व पश्चिमाभिमुख होकर जाने की आवश्यकता नहीं है। अतएव दक्षिणाभिमुख होकर उन्होंने प्रस्थान किया । बीचके खण्डमें बीचोबीच वृषभादि नामक पर्वत है। उस ओर अब षट्खण्ड वश होनेपर भरतेश्वर जाने लगे हैं। भरतेश्वर बहुत वैभवके साथ प्रयाण करते हुए कई मुक्कामोंको तय कर उस पर्वतके समीप पहुँचे हैं। वह पर्वत विशाल है। सो कोस तो उसके प्रथम भागका विस्तार है। तदनंतर सोकोस पुनः ऊँचा होकर पुनः क्रमसे वह नीचेकी ओर गया है। इस प्रकार देखने में बड़ा सुन्दर प्रतीत हो रहा है। हर एक कालमें जो षट्खण्डविजयी चक्रवर्ती होते हैं वे आकर इस पर्वत पर अपना शिलालेख लिखवाकर जाते हैं। भरतेनरने जाकर देखा तो वह पर्वत शिलालेखोंसे भरा हुआ है। तिल मात्र स्थान भी उसमें रिक्त नहीं है । इसे देखकर भरतेश्वरका गर्व गलित हुआ। मुझसे पहिले कितने चक्रवर्ती हुए हैं ! उन सबके शिलालेखोसे वह पर्वत भर गया है । भगवन् ! 'यह पृथ्वी मेरी है' इस बुद्धिसे अभिमान करना सचमुच में मूर्खता है। भरतेश्वरके मनको जानकर विदूषकने उस समय यह कहकर सब लोगोंको हँसाया कि यह गिरि कई बार पुरुषोंके साथ क्रीड़ाकर उनकी नखहति व दन्तहतिसे युक्त वेश्याके समान मालूम हो रही हैं । तब विटने उस बातको काटकर कहा कि यह बात जमती नहीं, यह पृथ्वी वेश्या है । यह गिरि वेश्याकी कलावन्त कुट्टिनी ( वेश्यादलालदूती ) है।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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