SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव आप रक्षित रहता है। मिथ्याशासनोंको टिकाव कहाँतक हो सकती है। उस समय आकाशमें हजारों भूतगण खड़े होकर घोषणा कर रहे थे हम लोग इस लिपिका संरक्षण करेंगे। चक्रवर्तीने भी परमात्मनाम स्मरण करके सेवकोंको आज्ञा दी कि दंडरत्नसे उन दृष्टलिपियोंको उड़ा दो। तब उस प्रकार पहिलेके एक शासनको उड़ाने के बाद वनशासन नामक कुशल करणिकने निम्नलिखित प्रकार वज्रसूचियोंसे उस पर्वतपर शासनका निर्माण किया। अंकमालापंचकं स्वस्तिश्रीमन्महालोक्यराजेंद्रमस्तकमणिगणकिरणप्रस्तारितांघ्रिपयोज, पूतिकर्मस्तोममधनविक्रम, अजिगवंतर्बहिरवगमेक्षण, त्रिजगवद्भुतशक्तियुत, अजरानंतसौख्ययत श्री वृषभेश्वर, तस्याग्रपुत्रो निरामय हंसोपमानसारग्राहि. हंसनाथेक्षणोत्साहि, संसेव्य, सन्मोहि, तद्भवकर्मविध्वंसि, सुज्ञानावगाहि, श्रृंगारयोगि, शुखात्मानुरागी. राज्यांगोपि संगत्यागि, अंगनाजनवनमधुमास, विग्यमुक्त्यंगनाबित्तिविलास, भरतचक्र शचंड हुण्डावपिणीकालस्यादो षट्खण्डमण्डलेऽस्मिन् खण्डे अखंडभोगी बभूवेति मंगलं महाधीश्रीश्री मंडनमस्तु हि स्वाहा। इस प्रकार रत्नमालाके समान मुन्दर अक्षरोंसे काकिणीरत्नसे उस अंकमालाको लिखाया। बादमें वहाँसे प्रस्थान कर पर्वतके पाममें ही मुक्काम करनेके लिए आज्ञा दी। स्वयं भी सब लोगोंको अपने-अपने स्थानपर भेजने के बाद अपने महल में प्रविष्ट हो गये। पाठक भूले न होंगे कि अंकमालाको अंकित करनेमें भरतेश्वरको किस प्रकार विघ्न आकर सामने खड़े हुए। परन्तु वे आत्मविश्वासके बलसे वे विचलित नहीं हए। उनको मालम था कि षदखण्ड जब मेरे वशमें हो गया है तो यह काम मेरे हाथसे होना ही चाहिए। क्योंकि उनको यह अभ्यस्त विषय था। वे रात्रिदिन अंकमाला लिखनेकी धुनमें रहते थे। वे सदा आत्मभावना करते थे कि: हे निष्कलंक परमात्मन् ! पंकजषदकोंमें ही नहीं, मेरे सर्वागमें ही अंकमालाके समान लिपिको अंकित कर मेरे हृदय में सदा बने रहो, जिससे मैं अंकमालामें सफल हो सके। सिखात्मन् ! आप मंगलमहिमाओं से संयुक्त हैं। मनोहर स्वरूप हैं। सौख्योंके सारके आप भंडार हैं ! सरसकलांग हैं ! इसलिए मुझे सन्मति प्रदान करें।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy