SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० भरतेश वैभव तुम्हें ही विचार करना चाहिये कि सम्राट्के हृदयमें तुम्हारे लिये कौनसा स्थान है? दूसरे लोग कन्या वगैरह देकर बहुत अधिक उत्सुकता से सम्राट्के साथ सम्बन्ध बढ़ाते हैं। परन्तु आप लोग तो जन्मजात सम्बन्धी हैं। गेसी अवस्थामें चक्रवर्तीक मनको दुखानेका साहस आप लोगोंको कैसे होता है। यह आश्चर्य की बात है, इत्यादि रूपसे विनमि राजसे कहने लगे। बिनमिराज भी विवश हुआ, उसने स्पष्ट कहा कि भावजी, आप उत्तरखण्ड को जिस समय आयेंगे उस समय नमिराज अवश्य ही आपका दर्शन करेंगे। अब विशेष बोलनेसे क्या प्रयोजन ? आपको छोड़कर रहना क्या बुद्धिमत्ता है ? आपके वैभव को सुनकर माताजी पहिलेसे ही प्रसन्न हो रही थीं ऐसी परिस्थिति में हम क्या नहीं जान सकने हैं ? आपसे बढ़कर हमें और बन्धु कौन है ? आपके हृदयको हम दुखायेंगे नहीं। अब अवश्य आपको सन्तुष्ट कर देंगे। भरतेश · विनमि ! ठीक है। मैंने अपने मामाके पुत्र समझकर तुम लोगोंके साथ प्रेम किया । परन्तु लोगोंने मुझे परकीय समझ लिया, कोई बात नहीं, जो हुआ सो हुआ। साथमें भरतेश्वरने विनमिको पास बुलाकर अनेक अभूषण को उपहार में दिये व साथमें नमिराज व अपनी मामीको भी योग्य उपहारोंको दिये । तदनंतर भरतेश्वरने प्रेमके साथ विनमिको आलिंगन दिया। विनमिको ऐसा मालूम हुआ कि मैं बड़ा भारी भाग्यशाली हूँ। इस लोक में ऐसे विरले ही होंगे जिनको अनेक राजाओंके सामने सम्राट् आलिंगन देता हो। मित्रोंने भी विन मिकी प्रशंसा की। विनमि ने हर्ष के साथ भरतेशलो नमस्कार किया। विद्याधर मंत्रीने भी साष्टांग नमस्कार किया व बिमानमें चढ़कर आकाशमार्गसे दोनों चले गये। जाते समय आपममें बातचीत करते जा रहे थे कि अब मुभद्रा देवी को नहीं देनपर सम्राट् छोड़ेगा नहीं। इसलिये नमिराजको जाकर मनाना होगा। इधर भरतेश्वरने मभा में उपस्थित मित्रोंको भी बुलाकर उनका यथेष्ट सन्मान किया। मित्रगणभी जाते हुए चक्रवर्तीके दूरदर्शिताकी प्रशंसा करते हुये जा रहे थे। सम्राट् बहुत बुद्धिमान हैं। गंभीर हैं जिस दिन विनमि आया उसी दिन उसे न डराकर इतने दिन अपने मनमें गुप्तरूपमें इस विषयको रखा । वह इसलिये कि विनमि मन में दुःखी होकर वह यहाँसे जल्दी चला नहीं जाय । परन्तु अब सब कार्य
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy