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भरतेश वैभव
शठनायक--स्वामिन् ! अब बिनमिराजको ही विजया का पट्टाभिषेक करना चाहिये। नमिराजको बहुत ही मद चढ़ गया है। उसे इसका सेवक बना देना चाहिये । यह कोई सम्राटके लिये बड़ी बात नहीं । ऐसा शासन होना ही चाहिये । जो हित करनेवाला है वह बन्धु है। बन्धु होकर भी जो अहित करनेवाला हो वह शत्रु है । ऐसी अवस्थामें शत्रुको योग्य दंड देना ही चाहिये।
कुटिलनायक-फँसानेवाले बन्धुको फंसाकर ही उसे राज्यच्युत कर किसी एक जगह रख देना चाहिये । भोले भाइयोंको फंसानेके समान हमारे विवेकी गूढ़ आत्मपरिज्ञानी सम्राटको फँसानेका विचार कर रहा है ! उसके लिये उचित व्यवस्था करनी चाहिये । ( विनमिराजका गर्व गलित हो रहा था।)
पोठमर्वक- यह सामान्य पर्वत नहीं है । विजयापवंत बहुत बड़ा पर्वत है । इसलिये ऊँचे पर्वतपर रखनेसे उसे मद चढ़ गया है। इसलिये उसे वहाँसे हटाकर समतल भूमिपर रख देना चाहिये ।
विवृषक---उसे वहाँसे हटाना भी नहीं, नीचे रखना भी नहीं, जहाँ बैठा है वहींपर कीलित कर देना चाहिये । (सब लोग हँसने लगे।)
दक्षिण--आप लोग सब कर्कश ही बोल रहे हैं, क्या तर्कशास्त्रका पठन तो नहीं किया है ? क्या वह नमिराज सम्राटके लिये कोई परकीय है ? उसके प्रति इस प्रकारके विरस बननोंको बोलना क्या उचित है ? वह अवश्य सम्राटके पास सन्तोषके साथ आयेगा । आप लोग चिता न करें । अभी तो अपने भाईको उसने भेजा है और वह भी समय पर आयेगा ही । पहिले दूसरे सब राजाओंने आकर उत्तमोत्तम पदार्थों को लाकर सम्राटको समर्पण किये, अब वह भी उत्तमवस्तुको लाकर सम्राट्को समर्पण करेगा।
शठ-भेंटकी आशा तुमने क्यों दिखलाई है, हमारे सम्राटको किसी चीज की कमी है ? उनको किस बातका लोभ है ?
भरतेश आप लोग सब शांत रहें, उनके देनेकी और हमारे लेनेकी कोई बात नहीं । वह तो होगी ही । परन्तु वह मेरे पास खुले हृदयसे नहीं आया इसीका मुझे दुःख है।
सम्राटके अन्तःकरणको जानकर विद्याधर मंत्री हर्ष के साथ उठकर कहने लगा कि स्वामिन् ! आप ठीक फरमा रहे हैं। हमारे राजा अवश्य आपके पास आ जायेंगे | आप जिस समय विजयार्धक उस ओर