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भरतेश वैभव
कविवाक्य संधिः सिद्ध परमेष्ठिन् ! आप समस्त लोकके यथार्थ गुरु हैं। उत्कृष्ट केवलजान ज्योतिको धारण करनेवाले हैं । विषयविषका नाश कर चुके हैं। अतएव आपने संसारका ही नाश किया है । भव्यरूपी कमलोंको स्विलाने के लिए आप सर्यके ममान हैं इसलिए आपसे मेरी सादर प्रार्थना है कि मुझे आप सदा सूबुद्धि देंवे ।।
चक्रवर्ती भरतके आस्थानमें संगीतध्वनि अब सुनाई नहीं देती। अव भरतराजकी इच्छा गाहित्यकला सुनने की ओर झुकी है। इसलिए उनने विद्वानोंके समूहकी ओर अपनी दष्टि डाली। मम्राट भरतके आस्थान में कवियोंकी क्या कमी ? फिर भी उनमें जब दिविजकलाधर नामके कविकी ओर महाराज भरतकी दृष्टि गई, तब वह विद्वान् उनके भावको समझाकर बोलने लगा ।
राजन् ! तुम श्री जिनद्रचरणके सेवक हो । राजाधिराजोंमें अग्रगण्य हो । हंस (आत्म) कलासे आनन्दित होनेवाले हो, एवं सबको आनन्दित करनेवाले हो | इसलिए तुम्हें महा जय सिद्धि हो ।
प्रत्येक शब्दके व्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे दो अर्थ निकलते हैं। शत्रु राजा तुम्हारी 'जयसिद्ध हो' ऐसा कहें तो यह जमिद्ध शब्दका लौकिक अर्थ है । यदि संसारके प्राणियोंको भय उत्पन्न करनेवाले कालकर्मको आप जीत लेवें यह उसका पारमार्थिक अर्थ है। राजन् ! लौकिक जयसिद्धिको प्राप्त करनेवाले राजा लोकमें बहुत हैं, परन्तु लौकिक जय एवं पारमार्थिक जयको प्राप्त करनेवाले राजाओंमें दुर्लभ हैं । उसके लिए सुविवेककी आवश्यकता है। यह साधारण बात नहीं है।
राजाको भोगविचारकी आवश्यकता है। आत्मयोगविचारकी भी आवश्यकता है। राजाको गगरसिक होना चाहिए, वीतरागताका भी रमिक होना चाहिये । उसमें शृंङ्गारका विज्ञान भी होना चाहिये । उसे आत्मज्ञानकी ओर भी झुकना चाहिये । समार-युद्धके भी उसकी तयारी रहनी चाहिये । आत्मयोगका विषय भी उसके आगे होना चाहिये। ___ वह इहलोक सम्बन्धी मुखको भी भोमें। परलोकमें सुख मिले इसके लिये धर्मकार्यमें उत्साहित हो । अनन्त प्रकारकी इच्छाओंमें फंसा हुआसा लोगोंको दिखे । परन्तु वह हृदयसे निस्पृह रहे।