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भरतेश वैभव
सुखका मुल सम्पत्ति है। सम्पत्ति का मूल धर्म है। अतः उत्तम पुरुष तो जिस धर्म के प्रसादसे सम्पत्तिको प्राप्ति हुई है, उस धर्मको कभी नहीं भूलते हैं। भोगमें फंसकर कर्मी लोग धर्मकी उपेक्षा करते हैं।
माधान हा देश बाहिर : रियम तर धर्मको जानकर बातचीत करना योग्य है । अयोग्य स्थानमें मौन आवश्यक है, भगवान् या अपने गुरुओंके पासमें गरीबके समान ही रहना चाहिये । प्रजाके सामने राजाके समान भी रहना चाहिये । उत्तम कुलोत्पन्न क्षत्रियोंका यह लक्षण है।
राजा प्रजाका हितैषी रहे। शत्रु-राजाओंके लिए भुजगेन्द्र मर्पराज सदृश रहे । अपने गुरुके समीपमें सेवकके समान रहे। धार्मिक जनोंको बन्धु होकर रहे।
राजन् ! परस्त्रियोंके लिए डरपोक, युद्धके लिए महाबीर, मिथ्या मत स्वीकार करनेका अवसर आये तो मूर्ख, जिनागममें अविचल, कलामें आनन्दयुक्त होना राजधर्म है। ___ इन्द्रियोंको अपने वशमें रखना चाहिए। आत्मयोगमें अविचल होना चाहिये। विशेष क्या कहें ? लोकमें आज जो राजा है वह भविष्यमें स्वर्ग के इन्द्र कहे जावेंगे। इंद्रियोंको वशमें करनेवालेके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। इंद्रियोंको वशमें न कर इंद्रियोंके वशमें होनेवाले मछली, हाथी, पतंग, भ्रमर इत्यादि प्राणी जब एक-एक इंद्रियोंके वशीभूत होकर अपने प्राणोंको खो देते हैं, तब पांचों इंद्रियोंके वशीभूत होनेवाले राजा बिगड़ जायें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । ___ अविवेकी मनुष्यकी पंच इंद्रिय पंचाग्निके समान हैं । उन इंद्रियोंसे स्वयं उसका नाश होता है । विवेकीको पंच इंद्रिय पंचरत्नोंके समान ज्ञानशून्य होकर विषयोंको भोगनेवाला भोगी, भोगी नहीं, वह तो भवरोगी है । विवेकसहित भोगनेवाला भोगी योगी है।
कर्म अज्ञानीको स्पर्श करता है । ज्ञानीको स्पर्श करनेका साहस उस कर्ममें नहीं है । वह ज्ञान कहाँ है ? मैं ही तो ज्ञानस्वरूप हूँ। मैं शरीरके रूपमें नहीं हूँ। इस प्रकारके विचार विवेकी मनुष्योंके मानसिक अनुभव की वस्तु है।
राजन् ! विज्ञान दो प्रकारका है। एक बाह्मविज्ञान, दूसरा अंत